12th Econimics

अध्याय-1: स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था

 स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था

 

स्वतंत्रता

 

स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मुख्य उदेश्य

  • औपनिवेशिक शासन का मुख्य उदेश्य इंग्लैंड में तेजी से विकसित हो रहे औद्योगिक आधार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को केवल कच्चा माल प्रदायक तक ही सिमित रखना  था| 
  • भारतीय संसाधनों का केवल शोषण मात्र उसका उद्देश्य था| 
  • भारतीय अर्थव्यवस्था का लयबद्ध तरीके से शोषण किया गया| 
  • ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का उद्देश्य अपने मूल देश के आर्थिक हितों का संरक्षण और संवर्धन ही था| 

भारतीय अर्थव्यवस्था का औपनिवेशिक शोषण

  • कृषि क्षेत्र का औपनिवेशिक शोषण : जिसमें भू-राजस्व की जमीदारी प्रथा द्वारा किया गया| वे जीतनी भी चाहे राशि वसूल सकते थे| 
  • औद्योगिक क्षेत्र का शोषण : भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य धारा उस समय हस्तशिल्प था जिसे ब्रिटेन में बनी मशीनी वस्तुओं ने धिर्रे धीरे विनाश कर दिया| 
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का शोषण : इस व्यापार का शोषण विभेदनकारी नीतियों को लागु कर किया गया| जिसमें भारतीय कच्चे माल का शुल्क मुक्त निर्यात किया गया जबकि ब्रिटिश वस्तुओं का शुल्क-मुक्त आयत किया गया, इससे ब्रिटेन की वस्तुए भारत में आकर सस्ती हो जाती थी| यहाँ की वस्तु विदेश में जाकर सस्ती हो जाती थी| 

औपनिवेशिक काल में भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक

  • कृषि
  • औद्योगिक क्षेत्रक
  • विदेशी व्यापार 

कृषि

औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था का मुख्य साधन कृषि ही था जिसकी 85% आबादी जो गाँव में रहती थी कृषि पर ही आश्रित थे| 

कृषि क्षेत्रक की गतिहीनता का मुख्य कारण

  • कृषि क्षेत्रक की गतिहीनता का मुख्य कारण औपनिवेशिक शासन द्वारा लागु की गई भू-व्यवस्था प्रणालियों को ही माना जा सकता है| 
  • जमीदारी व्यवस्था में कृषि कार्यों से होने वाले समस्त लाभ को जमींदार ही हड़प जाते थे| 
  • औपनिवेशिक शासकों ने कृषि क्षेत्रक की दशा को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया| 
  • भू-राजस्व व्यवस्था की पीड़ादायी शर्तें जिसमें निर्धारित समय पर यदि भू-राजस्व जमा नहीं कराया जाता था तो किसानों के अधिकार छीन लिए जाते थे|
  • निम्न स्तर की प्रौद्योगिकी के साथ-साथ सिंचाई सुविधाओं का आभाव का होना|
  • कृषि का व्यवसायीकरण का होना – कृषि के व्यवसायीकरण के कारण नकदी फसलों की ही उच्च उत्पादकता थी, परन्तु यह लाभ भारतीय किसानों को नहीं मिल पा रहा था| क्योंकि उन्हें खाद्यान्न की जगह नकदी फसलों का ही उत्पादन करना पड़ रहा था| 
  • कृषि में निवेश की कमी : भारतीय किसानों के पास कृषि में निवेश लिए नहीं संसाधन थे न तकनीक थी और नहीं कोई प्रेरणा| 

औद्योगिक क्षेत्रक

कृषि की ही भांति औद्योगिक क्षेत्रक औपनिवेशिक शासन में कोई मजबूत आधार का विकास नहीं कर पाया| 

इसके निम्नलिखित कारण थे : 

  • आधुनिक औद्योगिक आधार का न होना|
  • भारत में वि-औद्योगीकरण (उद्योगों का विनाश) के पीछे विदेशी शासकों की दोहरी निति और शोषण का उदेश्य| 
  • इंग्लैंड में विकसित आधुनिक उद्योगों के लिए भारत को एक कच्चा माल का निर्यातक बनना| 
  • अपने उत्पादों के लिए भारत को ही एक बाज़ार के रूप में विकसित करना|
  • शिल्पकला के पतन से भारत में बेरोजगारी का फैलना|
  • पूंजीगत उद्योगों का प्राय: आभाव का होना| 

विदेशी व्यापार

विदेशी व्यापार के क्षेत्र में भारत का इतिहास बहुत पुराना है| 

विदेशी व्यापार के पतन का कारण

  • औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपनाई गई वस्तु उत्पादन, व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों का भारत के विदेशी व्यापार की संरचना, स्वरुप और आकार पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा|
  • भारत सिर्फ कच्चे उत्पादक जैसे रेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील और पटसन आदि का निर्यातक ही बन कर रह गया|
  • भारत के आयात-निर्यात पर औपनिवेशिक सरकार का एकाधिकार का होना|
  • बुलियन (सोना तथा चाँदी) के आयात के स्थान पर अंतिम औद्योगिक वस्तुओं का आयात होने लगा जो मुख्यत: ब्रिटेन से ही आ रही थी| 

NCERT SOLUTIONS अभ्यास (पृष्ठ संख्या 14)

प्रश्न 1 भारत में औपनिवेशिक शासन की आर्थिक नीतियों का केंद्र बिंदु क्या था? उन नीतियों के क्या प्रभाव हुए?

उत्तर- भारत में औपनिवेशिक शासकों द्वारा रची गई आर्थिक नीतियों का मूल केंद्र बिंदु भारत का आर्थिक विकास न होकर अपने मूल देश के आर्थिक हितों का संरक्षण और संवर्द्धन था। इन नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था के स्वरूप के मूल रूप को बदल डाला। संक्षेप में, आर्थिक नीतियों के भारतीय अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े।

  1. भारत, इंग्लैण्ड को कच्चे माल की आपूर्ति करने तथा वहाँ के बने तैयार माल का आयात करने वाला देश बनकर रह गया।
  2. राष्ट्रीय आय और प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि की दर धीमी हो गई।
  3. कृषि उत्पादकता में निरंतर कमी हुई।
  4. भारतीय उद्योगों का पतन होता चला गया।
  5. बेरोजगारी का विस्तार हुआ।
  6. साक्षरता दर में आशानुकूल वृद्धि न हो सकी।
  7. पूँजीगत एवं आधारभूत उद्योगों का विस्तार न हो सका।
  8. सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव बना रहा।
  9. बार-बार प्राकृतिक आपदाओं और अकाल ने जनसामान्य को बहुत ही निर्धन बना डाला। इसके कारण, उच्च मृत्यु दर का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 2 औपनिवेशिक काल में भारत की राष्ट्रीय आय का आकलन करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्रियों के नाम बताइए।

उत्तर- दादाभाई नौरोजी, विलियम डिग्बी, फिंडले शिराज, डॉ. वी. के. आर. वी. राव तथा आर. सी. देसाई।

प्रश्न 3 औपनिवेशिक शासन काल में कृषि की गतिहीनता के मुख्य कारण क्या थे?

उत्तर- औपनिवेशिक शासन काल में कृषि की गतिहीनता के मुख्य कारण निम्नलिखित थे

  1. औपनिवेशिक शासन द्वारा लागू की गई भू-व्यवस्था प्रणाली।
  2. किसानों से अधिक लगान संग्रह।
  3. प्रौद्योगिकी का निम्न स्तर।
  4. सिंचाई सुविधाओं का अभाव।
  5. उर्वरकों का नगण्य प्रयोग।
  6. आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ापन।

प्रश्न 4  स्वतंत्रता के समय देश में कार्य कर रहे कुछ आधुनिक उद्योगों के नाम बताइए।

उत्तर- स्वतंत्रता के समय देश में कार्य कर रहे कुछ आधुनिक उद्योगों के नाम निम्नलिखित हैं-

  1. सूती-वस्त्र उद्योग।
  2. पटसन उद्योग।
  3. लौह-इस्पात उद्योग।
  4. चीनी उद्योग।
  5. सीमेंट उद्योग।
  6. कागज उद्योग।

प्रश्न 5 स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेजों द्वारा भारत के व्यवस्थित वि-औद्योगीकरण का दोहरे ध्येय क्या था?

उत्तर- भारत के वि-औद्योगीकरण के पीछे विदेशी शासकों का दोहरा उद्देश्य यह था कि प्रथम, वे भारत को इंग्लैण्ड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिए कच्चे माल का निर्यातक बना सकें तथा द्वितीय, वे उन उद्योगों के उत्पादन के लिए भारत को ही एक विशाल बाजार बना सकें। इस प्रकार, वे अपने उद्योगों के विस्तार द्वारा अपने देश (ब्रिटेन) के लिए अधिकतम लाभ सुनिश्चित करना चाहते थे।

प्रश्न 6 अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के परंपरागत हस्तकला उद्योगों का विनाश हुआ। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में कारण बताइए।

उत्तर- हाँ, मै इस विचार से सहमत हूँ कि अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के परंपरागत हस्तकला उद्योगों का विनाश हुआ। अठारहवीं सदी के मध्य तक विश्व के बाजारों में भारतीय हस्तकला उत्पादों की बहुत मांग थी लेकिन औपनिवेशिक सरकार की नीतियों ने इस प्रकार बाजार में इनकी मांग कम कर दी-

  • इंग्लैंड भारत से सस्ती दरों पर कच्चे माल की आपूर्ति करता था और मशीनों द्वारा तैयार समानों को भारतीय बाजार में हस्तशिल्प वस्तुओं की तुलना में सस्ती दरों पर बेचता था।
  • उन्होंने भारत के हस्तशिल्प उत्पादों के निर्यात पर भारी निर्यात शुल्क भी लगाया, जबकि भारत को कच्चे माल का निर्यात करने तथा ब्रिटिश उत्पादों का मुफ्त आयात करने की अनुमति दी गई थी।

प्रश्न 7 भारत में आधारिक संरचना विकास की नीतियों से अंग्रेज अपने क्या उद्देश्य पूरा करना चाहते थे?

उत्तर- औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत देश में रेलों, पत्तनों, जल-परिवहन व डाक-तार आदि का विकास हुआ। इसका उद्देश्य जनसामान्य को अधिक सुविधाएँ प्रदान करना नहीं था। अपितु देश के भीतर प्रशासन व पुलिस व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त रखने एवं देश के कोने-कोने से कच्चा माल एकत्र करके अपने देश में भेजने तथा अपने देश में तैयार माल को भारत में पहुँचाना था।

प्रश्न 8 ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा अपनाई गई औद्योगिक नीतियों की कमियों की आलोचनात्मक विवेचना करें।

उत्तर- ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा अपनाई गई औद्योगिक नीतियाँ पूरी तरह से ब्रिटेन में आगामी आधुनिक उद्योगों के सुविधा के लिए थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत को ब्रिटेन में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिए कच्चे माल का निर्यातक बनाना था और भारत को ब्रिटेन में मशीनों द्वारा बने वस्तुओं का बाजार बनाना था।

यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में कुछ आधुनिक उद्योगों की स्थापना होने लगी थी, किन्तु उनकी उन्नति बहुत ही धीमी ही रही। प्रारंभ में तो यह विकास केवल सूती वस्त्र और पटसन उद्योगों को आरंभ करने तक ही सीमित था।बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में लोहा और इस्पात उद्योग का विकास प्रारंभ हुआ। टाटा आयरन स्टील कंपनी (TISCO) की स्थापना 1907 में हुई। दुसरे विश्व युद्ध के बाद चीनी, सीमेंट, कागज आदि के कुछ कारखाने भी स्थापित हुए। किन्तु, भारत में भावी औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने हेतु पूँजीगत उद्योगों का प्रायः अभाव ही बना रहा। यही नहीं, नव औद्योगिक क्षेत्र की संवृद्धि दर बहुत ही कम थी और सकल घरेलू (देशीय) उत्पाद में इसका योगदान भी बहुत कम रहा। इस नए उत्पादन क्षेत्र की एक अन्य महत्वपूर्ण कमी यह थी कि इसमें सार्वजनिक क्षेत्र का कार्यक्षेत्र भी बहुत कम रहा। वास्तव में, ये क्षेत्रक प्रायः रेलों, विद्युत् उत्पादन, संचार, बंदरगाहों और कुछ विभागीय उपक्रमों तक ही सीमित थे।

प्रश्न 9 औपनिवेशिक काल में भारतीय संपत्ति के निष्कासन से आप क्या समझते हैं?

उत्तर- ब्रिटिश शासकों ने नागरिक प्रशासन तथा सेना के लिए बड़ी संख्या में अंग्रेज अधिकारी भर्ती किए तथा उन्हें भारतीय सहयोगियों की अपेक्षा बहुत अधिक वेतन और भत्ते दिए गए। सभी उच्च पदों पर ब्रिटिश अधिकारी ही नियुक्त किए गएं। असीमित प्रशासनिक शक्ति के कारण वे रिश्वत के रूप में भारी धनराशि लेने लगे। सेवानिवृत्त होने पर उन्हें पेंशन भी मिलती थी। भारत में रह रहे अधिकारी अपनी बचतों, पेंशन व अन्य लाभों के एक बड़े भाग को इंग्लैण्ड भेज देते थे। इन्हें पारिवारिक प्रेषण कहा गया। यह प्रेषण भारतीय सम्पत्ति को इंग्लैण्ड को निष्कासन था। इसके अतिरिक्त स्टर्लिंग ऋणों पर भारी ब्याज देना पड़ता था। इन्हें गृह ज्ञातव्य (home charges) का भुगतान करना पड़ता था। भारत को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के युद्धों का खर्च भी देना पड़ता था। इस प्रकार औपनिवेशिक काल में भारतीय सम्पत्ति का निष्कासन होता रहा।

प्रश्न 10 जनांकिकीयों संक्रमण के प्रथम से द्वितीय सोपान की ओर संक्रमण का विभाजन वर्ष कौन-सा माना जाता है?

उत्तर- जनांकिकीयों संक्रमण के प्रथम से द्वितीय सोपान की ओर संक्रमण का विभाजन वर्ष 1921 को माना जाता है।

प्रश्न 11 औपनिवेशिक काल में भारत की जनांकिकीय स्थिति का एक संख्यात्मक चित्रण प्रस्तुत करें।

उत्तर- ब्रिटिश भारत की जनसंख्या के विस्तृत ब्यौरे सबसे पहले 1881 की जनगणना के तहत एकत्रित किए गए। बाद में प्रत्येक दस वर्ष बाद जनगणना होती रही। वर्ष 1921 के पूर्व का भारत जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम सौपाने पर था। द्वितीय सोपान को आरम्भ 1921 के बाद माना जाता है। कुल मिलाकर साक्षरता दर तो 16 प्रतिशत से भी कम ही थी। इसमें महिला साक्षरता दर नगण्य, केवल 7 प्रतिशत आँकी गई थी। शिशु मृत्यु दर 218 प्रति हजार थी। इस काल में औसत जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी। देश की अधिकांश जनसंख्या अत्यधिक गरीब थी।

प्रश्न 12 स्वतंत्रता पूर्व भारत की जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ समझाइए।

उत्तर- स्वतंत्रता पूर्व भारत की जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ हैं-

  • कृषि सबसे बड़ा व्यवसाय था, जिसमें 70-75% जनसंख्या लगी थी। विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रकों में क्रमशः 10% तथा 15-20% जन-समुदाय को रोजगार मिल पा रहा था।
  • क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि एक बड़ी विलक्षणता रही। उस समय की मद्रास प्रेसिडेंसी (आज के तमिलनाडु, आंध्र, कर्नाटक और केरल प्रान्तों के क्षेत्रों) के कुछ क्षेत्रों में कार्यबल की कृषि क्षेत्रक पर निर्भरता में कमी आ रही रही थी, विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रकों का महत्व तदनुरूप बढ़ रहा था। किन्तु उसी अवधि में पंजाब, राजस्थान और उड़ीसा के क्षेत्रों में कृषि में लगे श्रमिकों के अनुपात में वृद्धि आँकी गई।

प्रश्न 13 स्वतंत्रता के समय भारत के समक्ष उपस्थित प्रमुख आर्थिक चुनौतियों को रेखांकित करें।

उत्तर- स्वतंत्रता के समय भारत के समक्ष उपस्थित प्रमुख आर्थिक चुनौतियाँ इस प्रकार थीं-

  1. कृषि क्षेत्र में अत्यधिक श्रम-अधिशेष एवं निम्न उत्पादकता।
  2. औद्योगिक क्षेत्र में पिछड़ापन।
  3. पुरानी व परम्परागत तकनीक।
  4. विदेशी व्यापार पर इंग्लैण्ड का एकाधिकार।
  5. व्यापक गरीबी।
  6. व्यापक बेरोजगारी।
  7. क्षेत्रीय विषमताएँ।
  8. आधारिक संरचना का अभाव।

प्रश्न 14 भारत में प्रथम सरकारी जनगणना किस वर्ष में हुई थी?

उत्तर- भारत में प्रथम सरकारी जनगणना 1881 में हुई थी।

प्रश्न 15 स्वतंत्रता के समय भारत के विदेशी व्यापार के परिमाण और दिशा की जानकारी दें।

उत्तर- विदेशी व्यापार का परिमाण द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत के विदेशी व्यापार की मात्रा में कमी हुई। आयातों में कमी होने के मुख्य कारण थे-शत्रु राष्ट्रों के साथ आयातों में कटौती, निर्यातक देशों का युद्ध में संलग्न होना, जहाजी यातायात की तंगी, यातायात भाड़े में वृद्धि और मशीनों के आयातों पर नियंत्रण। महाद्वीपीय देशों को निर्यात बंद हो जाने और जहाजी परिवहन की कमी के कारण ब्रिटेन को होने वाले निर्यातों में भी कमी आई, किंतु बाद के तीन वर्षों में इनमें तेजी से वृद्धि हुई।

भारत के आयत-निर्यात (1943-44 से 1946-47 तक) (करोड़ो ₹ में)

वर्ष आयत निर्यात व्यापर संतुलन
1943-44 111.8 210.8 +99.0
1944-45 203.6 227.7 +24.1
1945-46 292.2 266.4 -25.8
1946-47 330.2 322.3 -9.9

युद्ध के कारण विदेशी व्यापार की संरचना में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। आयात मद में कच्चे माल का हिस्सा बड़ा जबकि निर्मित वस्तुओं का हिस्सा घटा। इसके विपरीत निर्यातों में कच्चे माल का हिस्सा घटा जबकि निर्मित घस्तुओं का भाग बढ़ा। वस्तुओं की दृष्टि से इस अवधि में चाय तथा निर्मित जूट का निर्यात निरंतर बढ़ता रहा जबकि कच्चे जूट व तिलहन का निर्यात युद्ध से पूर्व तो बढ़ा किंतु उसके बाद घटता गया। सूती धागा, चीनी, सीमेंट, माचिस अन्य निर्मित माल तथा अन्य उपभोग वस्तुओं के आयात में निरंतर गिरावट आई जबकि खनिज तेल, रसायन, रंग आदि के आयात बढ़ते गए। विदेशी व्यापार की दिशा-युद्धकाल में ब्रिटेन के साथ भारत के निर्यात और आयात दोनों प्रकार के व्यापार का प्रतिशत कम हो गया लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के देशों के साथ व्यापार में बहुत वृद्धि हुई। संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ व्यापार में तेजी से वृद्धि हुई। कनाडा के साथ व्यापार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। यूरोपीय देशों-फ्रांस, जर्मनी, इटली, नीदरलैण्ड, बेल्जियम, ऑस्ट्रिया आदि के साथ भारत का व्यापार घटता चला गया। जापान के युद्ध में कूद पड़ने के कारण भारत का उसके साथ व्यापार बंद हो गया।

प्रश्न 16 क्या अंग्रेज़ों ने भारत में कुछ सकारात्मक योगदान भी दिया था? विवेचना करें।

उत्तर- हाँ, अंग्रेज़ों ने भारत में अनेक सकारात्मक योगदान भी दिया था। यह योगदान भारत की प्रगति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से नहीं बल्कि अंग्रेज़ों के औपनिवेशिक शोषण के लिए किया गया था। अंग्रेज़ों ने निम्नलिखित सकारात्मक योगदान दिए-

  • भारत में रेलवे का आरंभ- अंग्रेज़ों ने रेलों का आरंभ किया जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास प्रक्रिया को महत्वपूर्ण प्रकार से प्रभावित किया। इसने लोगों के भूक्षेत्रीय एवं सांस्कृतिक व्यवधानों को कम किया तथा भारतीय कृषि के व्यवसायीकरण को बढ़ावा दिया।
  • कृषि का व्यवसायीकरण- भारतीय कृषि के इतिहास में वाणिज्यिक कृषि की शुरुआत एक महत्वपूर्ण सफलता है। अंग्रेज़ों के आगमन से पहले, भारतीय कृषि निर्वाहन प्रवृत्ति का था। लेकिन कृषि के व्यवसायीकरण के साथ, बाजार की मांग के अनुरूप कृषि उत्पादों का उत्पादन किया जाने लगा। यही कारण है कि आज भारत खद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का लक्ष्य रख सकता है।
  • भारत में स्वतंत्र व्यापार की शुरुआत- औपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेज़ों ने भारत को स्वतंत्र व्यापार नीति अपनाने के लिए मजबूर किया। यह वैश्वीकरण की मुख्य अवधारणा है। स्वतंत्र व्यापार ने भारत के घरेलू उद्योग को ब्रिटिश उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए एक मंच प्रदान किया। इसके शुरुआत से भारत के निर्यात में तेजी से वृद्धि हुई।
  • आधारिक संरचना का विकास- अंग्रेज़ों द्वारा विकसित आधारिक संरचना भारत में अकाल के फैलाव के मापदंड में उपयोगी उपकरण सिद्ध हुआ। तार तथा डाक सेवाओं ने जनमान्य को सुविधा प्रदान किया।
  • पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार- अंग्रेजी ने भाषा के रूप में पाश्चात्य शिक्षा को बढ़ावा दिया। अंग्रेजी भाषा बाहरी दुनिया को जानने का एक माध्यम बना। इस भाषा ने विश्व के सभी देशों का भारत के साथ एकीकरण किया।
  • प्रेरणास्रोत- ब्रिटिश राजनीति भारतीय राजनीतिज्ञों तथा योजनाकारों के लिए आदर्श साबित हुआ। इससे भारतीय राजनेताओं को कुशल और प्रभावी तरीके से देश में शासन करने में मदद मिली।

अध्याय-2: भारतीय अर्थव्यवस्था (1950 – 1990 )

 

Also Visit eStudyzone for English Medium Study Material