12th Econimics

अध्याय-3: उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरणः एक समीक्षा

उदारीकरण; निजीकरण और वैश्वीकरणः एक समीक्षा

उदारीकरण

उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरणः स्वतंत्र भारत में समाजवादी तथा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के गुणों को सम्मिलित करते हुए मिश्रित आर्थिक ढांचे को स्वीकार किया गया। भारतीय अर्थव्यवस्था की अक्षम प्रबंधन ने 1980 के दशक तक वित्तीय संकट उत्पन्न कर दिया। सरकारी नीतियों और प्रशासन के क्रियान्वयन के लिए सार्वजनिक क्षेत्र तथा टैक्स (कर) सरकार के आय के स्रोत हैं। भारत में 1991 से भारत सरकार द्वारा कई आर्थिक सुधार किए गए।

आर्थिक सुधार की आवश्यकता

  • 1990 – 91 में भारत की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। 1991 के दौरान विदेशी ऋण के कारण भारत के सामने एक आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया तथा सरकार विदेशों से लिए गए उधार के पुनर्भुगतान की स्थिति में नहीं थी।
  1. विदेशी व्यापार खाते में घाटा बढ़ता जा रहा था। 
  2. 1988 से 1991 तक इसके बढ़ने की दर इतनी अधिक थी कि 91 तक घाटा 10, 644 करोड़ हो गया। 
  3. इसी समय विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से गिरकर मात्र दो सप्ताह के आपात पर्याप्तता स्तर पर आ गया। 
  4. 1990 – 91 में भारत सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से वित्तीय सुविधा के रुप में एक बहुत बड़ी राशि उधार ली। 
  5. अल्पकालीन विदेशी ऋणों के भुगतान के लिए 47 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास गिरवी रखना पड़ा।
  6. भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने मुद्रास्फीति का संकट था जिसकी दर 12 % हो गयी थी।
  7. मुद्रास्फीति के कारण कृषि उत्पादों के वितरण और बाजार मूल्यों (खरीद मूल्यों) में वृद्धि हई।
  8. परिणामस्वरुप बजट के मौद्रिकत घाटे में वृद्धि हई। साथ – साथ आयात मूल्य में वृद्धि हुई तथा विदेशी विनिमय दर में कमी हुई। परिणामस्वरुप भारत के सामने राजकोषीय तथा व्यापार घाटे की समस्या उत्पन्न 
  • इसलिए भारत के सामने केवल दो ही विकल्प बचे हुए थे 
  1. निर्यात में वृद्धि के साथ – साथ विदेशी उधार लेकर विदेशी विनिमय प्रवाह में वृद्धि कर भारतीय आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाए। 
  2. राजकोषीय अनुशासन को स्थापित करें तथा उद्देश्यवरक संरचनात्मक समायोजन लाया जाए।

आर्थिक सुधार की मुख्य विशेषताएँ

अर्थव्यवस्था की समस्या के समाधान के लिए भारत सरकार ने बहुत सारे आर्थिक सुधार किए। 

  • सरकार की औद्योगिक नीति का उदारीकरण।
  • उद्योगों के निजीकरण द्वारा विदेशी निवेश को प्रोत्साहन। 
  • उदारीकरण के अंग के रुप में लाइसेंस को खत्म करना। 
  • आयात और निर्यात नीति को उदार बनाते हुए आयात और निर्यात वस्तुओं पर आयात शुल्क में कमी जिससे कि औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक कच्चे माल का तथा निर्यात जन्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए कच्चे माल का आयात तुलनात्मक रुप से आसान होगा।
  • डॉलर के मूल्य के रुप में घरेलू मुद्रा का अवमूल्यन। 
  • देश के आर्थिक स्थिति में सधार और संरचनात्मक समायोजन के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक से बहुत अधिक विदेशी ऋण प्राप्त किया। 
  • राष्ट्र के बैंकिंग प्रणाली और कर संरचना में सुधार। 
  • सरकार द्वारा निवेश में कमी करते हुए बाजार अर्थव्यवस्था को स्थापित करना।

उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG)

आर्थिक सुधार के नए मॉडल को LPG मॉडल भी कहा जाता है। इस मॉडल का प्राथमिक उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के समक्ष तीव्रतर विकासशील अर्थव्यवस्था के रुप में स्थापित करना। 

उदारीकरण

उदारीकरण से तात्पर्य सामाजिक राजनैतिक व आर्थिक नीतियों में लगाए गए सरकारी नियंत्रण में कमी से है। भारत में 24 जुलाई 1991 से वित्तीय सुधारों के साथ ही आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरु हुई। 

निजीकरण

निजीकरण से तात्पर्य है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों, व्यवसाय एवम् सेवाओं के स्वामित्व, प्रबंधन व नियंत्रण को निजी क्षेत्र को हस्तान्तरित करने से है।

वैश्वीकरण

वैश्वीकरण का अर्थ सामान्यतया देश की अर्थव्यवथा का विश्व की अर्थव्यवस्था के एकीकरण से है।

भारत में LPG नीति के कुछ मुख्य बिन्दु निम्न है

  • विदेशी तकनीकी समझौता 
  • एम . आर . टी . पी . एक्ट 1969 
  • विदेशी निवेश 
  • औद्योगिक लाइसेंस विनियमन 
  • निजीकरण और विनिवेश का प्रारंभ 
  • समुद्रपारीय व्यापार के अवसर 
  • मुद्रास्फीति नियमन 
  • कर सुधार 
  • वित्तीय क्षेत्र सुधार 
  • बैंकिंग सुधार 
  • लाइसेंस और परमिट राज की समाप्ति।

मूल्यांकन

  • उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की अवधारणा एक – दूसरे से जुड़ी हुई है और इनके अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक व नकारात्मक दोनों प्रभाव दिखते हैं। 
  • कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वैश्वीकरण अर्थव्यवस्था के लिए नए अवसर उपलब्ध कराता है जिससे उनके बेहतर तकनीक और उत्पादन की क्षमता में वृद्धि के साथ नये बाजार के द्वार खुलते हैं।
  • जबकि दूसरे समूह का मानना है कि यह विकासशील देशों के घरेल उद्योगों को संरक्षण नहीं प्रदान करता है। भारतीय संदर्भ में देखने पर हम पाते हैं कि वैश्वीकरण ने जीवन निर्वहन सुविधाओं को बेहतर किया है तथा मनोरंजन, संचार, परिवहन इत्यादि क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसरों का विस्तार किया है।

सकारात्मक प्रभाव

  • उच्च आर्थिक समृद्धि दर 
  • विदेशी निवेश में वृद्धि 
  • विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि 
  • नियंत्रित मुद्रास्फीति 
  • निर्यात संरचना में परिवर्तन 
  • निर्यात की दिशा में परिवर्तन 
  • उपभोक्ता की संप्रभुता स्थापित

नकारात्मक प्रभाव

  • कृषि की प्रभावहीनता 
  • रोजगारविहीन आर्थिक समृद्धि 
  • आय के वितरण में असमानता 
  • लाभोन्मुखी समाज 
  • निजीकरण पर नकारात्मक प्रभाव 
  • संसाधनों का अतिशय दोहन 
  • पर्यावरणीय अपक्षय

उदारीकरण ,रुपयों के अवमूल्यन

नियंत्रण प्राधिकारी के निर्णय से जब विनिमय दर में गिरावट आती है जिससे एक मुद्रा का मूल्य अन्य मुद्रा की तुलना में कम हो जाता है तो उसे अवमूल्यन कहते हैं। 

इसके परिणामस्वरूप, आयात महँगे और निर्यात सस्ते हो जाते हैं। अतः निर्यात बढ़ जाते हैं। और आयात कम हो जाते हैं। इस तरह व्यापार का संतुलन ठीक हो जाता है।

विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होना क्यों आवश्यक है?

आई.एम.एफ. और विश्व बैंक से ऋण प्राप्ति के लिए और अन्य देशों के साथ मुफ्त व्यापार करने के लिए विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होना आवश्यक है। विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बने बिना एक देश वैश्वीकत होते विश्व व्यापार का लाभ नहीं उठा सकता।

इसके कुल कितने सदस्य हैं?

वर्तमान में 164 सदस्य है। 164 वाँ सदस्य 29 जुलाई 2016 को अफगानिस्तान बना।

विमुद्रीकरण (8 नवंबर 2016)

  • भारत सरकार ने 8 नवम्बर 2016 को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये अहं घोषणा की कि तत्काल प्रभाव से 2 सर्वोच्च मूल्य वाली मौद्रिक करेंसी रुपया 1000 और रुपया 500 अब वैधानिक मुद्रा नहीं रहेगे। कुछ विशिष्ट उद्देश्यों और स्थानों को छोड़कर।
  • इससे चलन में जारी 86 % मुद्रा तत्काल अवैध हो गयी। कुछ निश्चित प्रतिबंधों और प्रावधानों के तहत पुरानी मुद्रा को बैंको में जमा कराकर बदलने का काम किया गया। यह अब तक का अंतिम और नवीनतम विमुद्रीकरण है। 

विमुद्रीकरण से तात्पर्य

  • विमुद्रीकरण एक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत किसी मौद्रिक करेंसी की इकाई का वैधानिक दर्जा वापस ले लिया जाता है। दूसरे शब्दों में सरकार द्वारा वर्तमान की वैधानिक मुद्रा इकाई को चलन से बाहर करने के लिये अवैध घोषित कर देना विमुद्रीकरण कहलाता है। 

सामान्यत :- विमुद्रीकरण के बाद पुरानी मौद्रिक करेंसी की इकाईयों के स्थान पर नयी मौद्रिक करेंसी की इकाई को चलन में लाया जाता है। 

  • भारत में सर्वप्रथम 1946 में भारतीय रिजर्व बैंक ने 1000 और 10000 की नोटों का विमुद्रीकरण किया था। 1954 में 3 नये मौद्रिक करेंसी की इकाईयां रुपये 1000 रुपये 5000 तथा रुपये 10, 000 चलन में लायी गयी। इसके बाद 1978 में भारत सरकार ने गैर कानूनी लेने – देने और असामाजिक क्रिया – कलापों को रोकने के लिये इन नोटो का पुनः विमुद्रीकरण कर दिया गया।

2016 के विमुद्रीकरण के प्रमुख कारण

  • अर्थव्यवस्था में काले धन की मात्रा बहुत अधिक बढ़ गयी थी। 
  • भारत में नकली नोटों का प्रवाह और चलन बढ़ गया था। 
  • नकली नोटों तथा बड़ी नोटों का प्रयोग आतंकवाद और नक्सलवाद को पोषित करने में भी किया जा रहा था। 
  • बड़ी नोटों की जमाखोरी के कारण राजकोषीय विस्तार कम हो गया था। 
  • बैंक प्रणाली में तरलता की कमी थी। 
  • भारत की औपचारिक अर्थव्यवस्था की तुलनामें अनौपचारिक अर्थव्यवस्था बढ़ रही थी। 
  • समानान्तर अर्थव्यवस्था चल रही थी। उपर्युक्त कारण अर्थव्यवस्था के व्यवधान के रूप में देखे जा रहे थे। इन व्यवधानों से निजात पाने के लिये विमुद्रीकरण का रास्ता अपनाया गया।

विमुद्रीकरण के संभावित लाभ

  • भ्रष्टाचार में कमी। 
  • उच्च मूल्यों वाली नकली नोटों द्वारा गैर कानूनी क्रियाप – कलापों में कमी। 
  • काले धन के संचय पर आघात। 
  • बचत की मात्रा में वृद्धि। 
  • व्याज दरों में गिरावट। 
  • औपचारिक अर्थव्यवस्था का विस्तार। 
  • असामाजिक गतिविधियों पर लगाम।

विमुद्रीकरण की विशेषताएं

  • विमुद्रीकरण से कर प्रशासन और कर संरचना का विस्तार हुआ। 
  • स्वैच्छिक आय घोषणा द्वारा सरकारी राजस्व में वृद्धि। 
  • विमुद्रीकरण इस बात का संकेत था, कि सरकार द्वारा आने वाले समय में कर अपवन को गंभीरता से लिया जायेगा। 
  • वित्तीय प्रणाली में बचत और निवेश के औपचारिक सम्बन्ध को विस्तार मिला। 
  • बैंकों को ऋण प्रदान करने के लिए तरलता का आधार विस्तृत हुआ इससे व्याज दरों में कमी आयी। 
  • नकद लेन – देन अर्थव्यवस्था में कमी हुई और नकद रहित अर्थव्यवस्था की ओर भारतीय अर्थव्यवस्था अनुगमन हुआ। 
  • डिजिटल लेन – देन और पालस्टिक मुद्रा को प्रोत्साहन मिला। 

विमुद्रीकरण के प्रभाव

  • नकद लेन – देन में कमी। 
  • बैंक जमाओं में वृद्धि। 
  • वित्तीय बचत में वृद्धि। 
  • व्याज दरों में कमी। 
  • अचल सम्पत्तियों की कीमतों में गिरावट।
  • नये उपयोग कर्ताओं के बीच डिजिटल स्थानान्तरण में वृद्धि। 
  • आय – कर में वृद्धि। 
  • सरकार के राजस्व में वृद्धि। 
  • आयकर के कराधार में वृद्धि।

वस्तु एवं सेवा कर (Goods & Service Tax) (1 जुलाई 2017)

  • वस्तु एवं सेवाकर भारत के आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया में दूसरी पीढ़ी के सुधारों में अब तक का सबसे बड़ा कर सुधार है। यह कर सुधार भारत के अप्रयक्ष कर सुधारों को सबसे अधिक विस्तृत करने वाला और पूर्णतः की ओर ले जाने वाला है।
  • जी . एस . टी . पर विचार करने के लिए बनायी गयी राज्य वित्त मंत्रियों की सशक्त समिति ने 10 नवम्बर 2009 को दोहरे जी . एस . टी . कर प्रस्ताव दिया था। जो केन्द्र और राज्य दोनों को करारोपण की शक्ति प्रदान करता है। 
  • जी . एस . टी . लागू करने के लिये संविधान संशोधन किया गया क्योंकि वस्तुओं के उत्पादन पर कर लगाने का अधिकार केन्द्र सरकार के पास था और वस्तुओं के विक्रय पर कर लगाने का अधिकार राज्य सरकारों के पास था।
  • सेवाओं पर भी कर लगाने का अधिकार केन्द्र सरकार के पास था। इसी तरह वस्तुओं और सेवाओं के आयात पर कर लगाने का अधिकार केन्द्र के ही पास था। इन्हीं विभिन्नताओं में एक रूपता लाने के लिये संविधान संशोधन किया गया। 

वस्तु एंव सेवाकर का अर्थ

  • वस्तु एवं सेवाकर एक व्यापक अप्रत्यक्ष कर है जो वस्तुओं और सेवाओं के बीच बिना भेद – भाव किये राष्ट्रीय स्तर पर उनके विनिर्माण उत्पादन, विक्रय तथा उपभोग पर लगाया जाता है।
  • यह कर केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा लगाये जा रहे लगभग सभी अप्रत्यक्ष करों को प्रतिस्थापित कर देगा। यह बहु – बिंदु कर व्यवस्था एकल बिंदु कर व्यवस्था की ओर ले जायेगा।
  • इसके अन्तर्गत हर व्यक्ति अपने उत्पाद पर कर अदा करने के लिये उत्तरदायी होगा और अपने आदतों पर अदा किये गये कर का आगत कर रसीद प्राप्त करने का हकदार होगा। 

वस्तु एवं सेवाकर के प्रकार :-

वस्तु और सेवाकर 3 प्रकार का है 

  • राज्य स्तरीय वस्तु एवं सेवाकर :- यह ऐसा कर है जो राज्य सरकार के राजस्व विभाग को अदा किया जाता है। यह सामान्यतः संघीय वस्तु सेवा कर के समान होता है। यह कर वर्तमान राज्य स्तरीय वैठ (मूल्य वर्धित कर) अविा विक्रीकर का स्थान लेगा।
  • संघीय वस्तु एवं सेवाकर :- यह ऐसा कर है जो केन्द्र सरकार के राजस्व विभाग को अदा किया जाता है। यह लगभग राज्यस्तरीय वस्तु सेवा कर के बराबर होता है। यह उत्पाद शुल्क और सेवा कर जैसे केन्द्र सरकारक करों का स्थान लिया। स्थानीय विक्री की दशा में जी . एस . टी . का 50 % संघीय वस्तु सेवाकर के रूप में केन्द्र सरकार को हस्तांतरित किया जाता है। 
  • समन्वित वस्तु एवं सेवाकर :- यह कर अंतर्राज्यीय क्रय – विक्रय पर लगाया जाता है। इसका एक हिस्सा केन्द्र सरकार तथा शेष हिस्सा राज्य सरकार को हस्तान्तरिक किया जाता है। 

वस्तु एवं सेवाकर के उद्देश्य

  • बहुबिंदु कर प्रणाली को समाप्त कर ना। 
  • वस्तुओं और सेवाओं की लागत वितरण और उत्पादन पर कर के प्रपाती प्रभाव को समाप्त करना। 
  • बाजार में मूलतः वस्तुओं और सेवाओं की प्रतियोगिता को बढ़ावा देना। 
  • सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में सकारात्मक योगदान। 
  • विभिन्न अप्रत्यक्ष करों का एकीकरण।

वस्तु एवं सेवाकरों की दरे

भारत में इसे 5 दरों में विभाजित किया गया है। 

  • सभी मूलभूत आवश्यकता बाकी वस्तुओं एवं सेवाओं के लिये शून्य प्रतिशत वस्तु एवं सेवाकर के दायरे पर रखा गया है। 

जैसे – खाद्यान्य, बेड, नमक, किताबे, आदि। 

  • कुछ उच्च उपभोग वस्तुओं पर 5% की दर से वस्तु एवं सेवा कर लगाया जाता है। 

जैसे – पनीर, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ, चाय, कॉफी आदि। 

  • उच्च जन उपभोग वस्तुओं पर 12% जैसे – मोबाइल, मिठाइयां दवायें आदि। 
  • सभी तरह की सेवाओं पर 18% की दर से वस्तु एवं सेवाकर लगाया जाता है। 
  • अन्य सभी बिलासी वस्तुओं पर 28% की दर से वस्तु एवं सेवाकर लगाया जाता है। पेट्रोल, गैस, कच्चे तेल, डीजल आदि को वस्तु एवं सेवा कर के दायरे से बाहर रखा गया है। 
  • सर्व प्रथम यह कर 1954 में फ्रांस में लगाया गया था। वर्तमान में लगभग 150 देशों में यह कर लागू है। भारत में यह कर 1 जुलाई, 2017 से ‘ एक देश ‘ ‘ एक कर ‘ के नारे के साथ लागू किया गया।

NCERT SOLUTIONS  अभ्यास (पृष्ठ संख्या 55)

प्रश्न 1 भारत में आर्थिक सुधार क्यों आरम्भ किए गए?

उत्तर- वर्ष 1991 में भारत को विदेशी ऋणों के मामले में संकट का सामना करना पड़ा। सरकार अपने विदेशी ऋण के भुगतान करने की स्थिति में नहीं थी। पेट्रोल आदि आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए सामान्य रूप से रखा गया विदेशी मुद्रा भण्डार पन्द्रह दिनों के लिए आवश्यक आयात का भुगतान करने योग्य भी नहीं बचा था। इस संकट को आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि ने और भी गहन बना दिया था। इन सभी कारणों से आर्थिक सुधार आरम्भ किए गए।

प्रश्न 2 विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होना क्यों आवश्यक है?

उत्तर- किसी देश का विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होना निम्न कारणों से आवश्यक है-

  • विश्व व्यापार संगठन का प्रमुख उद्देश्य सभी देशों को विश्व व्यापार में समान अवसर उपलब्ध कराना है।
  • विश्व व्यापार संगठन का ध्येय ऐसी नियम आधारित व्यवस्था की स्थापना है, जिसमें कोई देश मनमाने ढंग से व्यापार के मार्ग में बाधाएँ खड़े नहीं कर पाए।
  • साथ ही इसका ध्येय सेवाओं के सृजन और व्यापार को प्रोत्साहन भी देना है ताकि विश्व के संसाधनों का इष्टतम स्तर पर प्रयोग हो और पर्यावरण का भी संरक्षण हो सके।
  • विश्व व्यापार संगठन सभी सदस्य देशों के प्रशुल्क और अप्रशुल्क अवरोधकों को हटाकर तथा अपने बाजारों को सदस्य देशों के लिए खोलकर द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार को बढ़ाने हेतु इसमें वस्तुओं और सेवाओं के साथ-साथ विनिमय को भी स्थान देता है।

प्रश्न 3 भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय क्षेत्र में नियंत्रक की भूमिका से अपने को सुविधाप्रदाता की भूमिका अदा करने में क्यों परिवर्तित किया?

उत्तर- उदारीकरण के बाद, भारतीय रिजर्व बैंक को नियंत्रक की भूमिका से हटाकर उसे सुविधाप्रदाता की भूमिका अदा करने में परिवर्तित किया जिसका अर्थ है कि वित्तीय क्षेत्रक रिजर्व बैंक से सलाह किए बिना ही कई मामलों में अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र हो जाएगा।

प्रश्न 4 रिजर्व बैंक व्यावसायिक बैंकों पर किस प्रकार नियन्त्रण रखता है?

उत्तर- भारत में विसीय क्षेत्र का नियन्त्रण रिजर्व बैंक का दायित्व है। रिजर्व बैंक के विभिन्न नियम और कसौटियों के माध्यम से ही बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थानों के कार्यों का नियमन होता है। भारतीय रिजर्व बैंक निम्नलिखित प्रकार से व्यावसायिक बैंकों पर नियन्त्रण रखता है।

  1. कोई बैंक अपने पास कितनी मुद्रा जमा रख सकता है।
  2. यह ब्याज की दरों को निर्धारित करता है।
  3. विभिन्न क्षेत्रों को उधार देने की प्रकृति इत्यादि को भी यक्लक करता है।

प्रश्न 5 रूपयों के अवमूल्यन से आप क्या समझते हैं?

उत्तर- अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रचलित मुद्रा के तुलना में रूपये के मूल्य को घटना रूपये का अवमूल्यन कहलाता है। इसका अर्थ यह होता है कि रूपये का मूल्य गिर गया है तथा विदेशी मुद्रा का मूल्य बढ़ गया है।

प्रश्न 6 इनमें भेद करें-

  1. युक्तियुक्त और अल्पांश विक्रय।
  2. द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार।
  3. प्रशुल्क एवं अप्रशुल्क अवरोधक।

उत्तर-

  1. युक्तियुक्त और अल्पांश विक्रय- युक्तियुक्त विक्रय राज्य के स्वामित्व वाली इकाइयों में कमी करने को युक्तियुक्त विक्रय कहते हैं। अल्पांश विक्रय-इसके अन्तर्गत वर्तमान सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के एक हिस्से को निजी क्षेत्र को बेच दिया जाता है।
  2. द्विपक्षीय व्यापार- इसमें दो देशों को अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में समान अवसर प्राप्त होते हैं।

बहुपक्षीय व्यापार- बहुपक्षीय व्यापार में सभी देशों को विश्व व्यापार में समान अवसर प्राप्त होते, हैं। इसमें विश्व व्यापार संगठन का उद्देश्य ऐसी नियम आधारित व्यवस्था की स्थापना है, जिसमें कोई देश मनमाने ढंग से व्यापार के मार्ग में बाधाएँ खड़ी न कर पाए। इसका उद्देश्य सेवाओं का सृजन और व्यापार को प्रोत्साहन देना भी है ताकि विश्व के संसाधनों का इष्टतम प्रयोग हो सके।

  1. प्रशुल्क एवं अप्रशुल्क अवरोधक- प्रशुल्क, आयातित वस्तुओं पर लगाया गया कर है जिसके कारण आयातित वस्तुएँ महँगी हो जाती हैं और इससे विदेशी प्रतिस्पर्धा से घरेलू उद्योगों की रक्षा होती है। आयात पर कठोर नियन्त्रण एवं ऊँचे प्रशुल्क द्वारा ये अवरोधक लगाए जाते हैं। इसमें सीमा कर तथा आयात-निर्यात करों को शामिल किया जाता है। अप्रशुल्क अवरोधक-अप्रशुल्क अवरोधक (जैसे कोटा एवं लाइसेंस) में वस्तुओं की मात्रा निर्दिष्ट की जाती है। ये अवरोधक भी परिमाणात्मक अवरोधक कहलाते हैं।

प्रश्न 7 प्रशुल्क क्यों लगाए जाते हैं?

उत्तर- प्रशुल्क, आयातित वस्तुओं पर लगाया गया कर है। प्रशुल्क लगाने पर आयातित वस्तुएँ अधिक महँगी हो जाती है, जो वस्तुओं के प्रयोग को हतोत्साहित करती है। यह घरेलू उत्पादित वस्तुओं का संरक्षण करता है।

प्रश्न 8 परिमाणात्मक प्रतिबन्धों को क्या अर्थ होता है?

उत्तर- देशी उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से, हमारे नीति-निर्धारकों ने परिमाणात्मक उपाय लागू किए। इसके लिए आयात पर कठोर नियन्त्रणों एवं प्रशुल्कों का प्रयोग होता था। परिमाणात्मक उपाय प्रशुल्क एवं अप्रशुल्क दोनों प्रकार से किए जाते हैं। कोटा, लाइसेंस, प्रशुल्क आदि परिमाणात्मक प्रतिबन्धों के अन्तर्गत आते हैं।

प्रश्न 9 ‘लाभ कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण कर देना चाहिए’? क्या आप इस विचार से सहमत हैं? क्यों?

उत्तर- लाभ कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण नहीं करना चाहिए क्योंकि ये सरकार के लिए राजस्व प्राप्ति के साधन हैं। यदि कोई सार्वजनिक उपक्रम अकुशल तथा घटे की स्थिति में चल रहे हैं तो वे सरकार के लिए राजस्व के कमी का कारन बनती है तथा इससे बजट घाटे की संभावना बढ़ती है। घटे में चल रहे उपक्रमों का निजीकरण कर देना चाहिए। इसके अतिरिक्त कई ऐसे सार्वजनिक उपक्रम जैसे, जल विभाग, रेलवे आदि राष्ट्र के हित को बढ़ावा देते हैं और आम नागरिक को कम मूल्य पर उपलब्ध किये जाते हैं। ऐसे उपक्रमों के निजीकरण से आम नागरिकों के हित को नुकसान पहुँचता है। इस प्रकार, कम लाभ कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों का ही निजीकरण करना चाहिए। लाभ कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण के स्थान पर, सरकार अपने कार्यों में अधिक स्वायत्तता तथा जिम्मेदारी बढ़ा सकती है, जो न केवल उनकी उत्पादकता और दक्षता में वृद्धि करेगा बल्कि अपने निजी समकक्षों के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा को भी बढ़ाएगा।

प्रश्न 10 क्या आपके विचार में बाह्य प्रापण भारत के लिए अच्छा है? विकसित देशों में इसका विरोध क्यों हो रहा है?

उत्तर- बाह्य प्रापण वैश्वीकरण की प्रक्रिया का एक विशिष्ट परिणाम है। इसमें कम्पनियाँ किसी बाहरी स्रोत (संस्था) से नियमित सेवाएँ प्राप्त करती हैं, जैसे-कानूनी सलाह, कम्प्यूटर सेवा, विज्ञापन, सुरक्षा आदि। संचार के माध्यमों में आई क्रान्ति, विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी के प्रसार, ने अब इन सेवाओं को ही एक विशिष्ट आर्थिक गतिविधि का स्वरूप प्रदान कर दिया है।

आजकल बहुत सारी बाहरी कम्पनियाँ ध्वनि आधारित व्यावसायिक प्रक्रिया प्रतिपादन, अभिलेखांकन, लेखांकन, बैंक सेवाएँ, संगीत की रिकार्डिंग, फिल्म सम्पादन, शिक्षण कार्य आदि सेवाएँ भारत से प्राप्त कर रही हैं। अब तो अधिकांश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ-साथ अनेक छोटी-बड़ी कम्पनियाँ भी भारत से ये सेवाएँ प्राप्त करने लगी हैं क्योंकि भारत में इस तरह के कार्य बहुत कम लागत में और उचित रूप से निष्पादित हो जाते हैं। इस कार्य से भारत विकसित देशों से काफी विदेशी मुद्रा पारिश्रमिक के रूप में अर्जित कर रहा है। विकसित देश बाह्य प्रापण का इसीलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि भारत ने बाह्य प्रापण के व्यापर में अच्छी प्रगति की है और विकसित देशों को इस बात का डर है कि कहीं उनका देश उक्त सेवाओं पर भारत पर निर्भर न हो जाए।

प्रश्न 11 भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ विशेष अनुकूल परिस्थितियाँ हैं जिनके कारण यह विश्व का बाह्य प्रापण केंद्र बन रहा है। अनुकूल परिस्थितियाँ क्या हैं?

उत्तर- कुछ विशेष अनुकूल परिस्थितियाँ जिनके कारण भारत विश्व का बाह्य प्रापण केंद्र बन रहा है-

  • सस्ते श्रमिकों की आसानी से उपलब्धता- अन्य विकसित देशों के तुलना में भारत में मजदूरी दर बहुत कम है, जिसके कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने व्यापार के बाह्य प्रापण के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य पाया।
  • कौशल- भारतीयों के पास उचित मात्रा में कौशल और तकनीकी ज्ञान के रूप में अंतर्राष्ट्रीय भाषा, अंग्रेजी का ज्ञान उपलब्ध है।
  • स्थिर राजनितिक वातावरण- भारत में लोकतांत्रिक राजनीतिक वातावरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विस्तार और बढ़ने के लिए एक स्थिर और सुरक्षित वातावरण प्रदान करता है।
  • कच्चे माल की सस्ते दरों पर उपलब्धता- भारत में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है। इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कच्चे माल की सस्ती उपलब्धता और कच्ची सामग्रियों की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करता है। इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के समुचित और सुचारु संचालन में मदद मिलती है।

प्रश्न 12 क्या भारत सरकार की नवरत्न नीति सार्वजनिक उपक्रमों के निष्पादन को सुधारने में सहायक रही है? कैसे?

उत्तर- 1996 ई. में नवउदारवादी वातावरण में सार्वजनिक उपक्रमों की कुशलता बढ़ाने, उनके प्रबन्धन में व्यवसायीकरण लाने और उनकी स्पर्धा क्षमता में प्रभावी सुधार लाने के लिए सरकार ने नौ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का चयन कर उन्हें नवरत्न घोषित कर दिया। ये कम्पनियाँ हैं- ‘IOCL, BPCL, HPCL, ONGC, SAIL, IPCL, BHEL, NTPC और BSNL, नवरत्न’ नाम से अलंकरण के बाद इन कम्पनियों के निष्पादन में निश्चय ही सुधार आया है। स्वायत्तता मिलने से ये उपक्रम वित्तीय बाजार से स्वयं संसाधन जुटाने एवं विश्व बाजार में अपना विस्तार करने में सफल होते जा रहे हैं।

प्रश्न 13 सेवा क्षेत्रक के तीव्र विकास के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारक कौन-से रहे हैं?

उत्तर- सेवा क्षेत्रक के तीव्र विकास के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-

1991 में शुरू किए आर्थिक सुधार नीति के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय वित्त के संचलन पर कई प्रतिबन्ध हटा दिए जिससे विदेशी पूँजी, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश तथा बाह्य प्रापण का भारत की अर्तव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा। इसने सेवा क्षेत्रक के तीव्र विकास को गति प्रदान की।

कम मजदूरी दर पर सस्ते श्रम तथा कुशल श्रमिकों की उपलब्धता।

भारत में सूचना प्रौद्योगिकी (IT) क्षेत्र में क्रांति ने सेवा क्षेत्र के तीव्र विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

भारतीय अर्थव्यवस्था को संरचनात्मक परिवर्तन का सामना करना पड़ रहा है जिसका तात्पर्य है प्राथमिक से तृतीयक क्षेत्र में आर्थिक निर्भरता में परिवर्तन। इसके कारण, अन्य क्षेत्रों द्वारा सेवा क्षेत्र की माँग में वृद्धि हुई।

प्रश्न 14 सुधार प्रक्रिया से कृषि क्षेत्रक दुष्प्रभावित हुआ लगता है। क्यों?

उत्तर- सुधार कार्यों से कृषि को कोई लाभ नहीं हो पाया है और कृषि की संवृद्धि दर कम होती जा रही है। इस पर विचार के लिए हम निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार कर सकते हैं-

  1. कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक व्यय, जैसे- सिंचाई, बिजली, सड़क-निर्माण और शोध-प्रसार आदि पर व्यय में काफी कमी आई है।
  2. उर्वरक सहायिकी में कमी ने उत्पादन लागतों को बढ़ा दिया है।
  3. विश्व व्यापार संघ की स्थापना के कारण कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क में कटौती, न्यूनतम समर्थन मूल्यों की समाप्ति का विचार है जिस कारण देशी किसानों को बाहरी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा।
  4. आन्तरिक उपभोग की खाद्यान्न फसलों के स्थान पर निर्यात के लिए नकदी फसलों पर बल दिया जा रहा है। इससे देश में खाद्यान्नों की कीमतों पर दबाव बढ़ रहा है।
  5. प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता एवं गुणवत्ता घट रही है।
  6. सरकार का ध्यान कृषि से उद्योग की ओर परिवर्तित हुआ है।

प्रश्न 15 सुधार काल में औद्योगिक क्षेत्रक के निराशाजनक निष्पादन के क्या कारण रहे हैं?

उत्तर- सुधार काल में औद्योगिक क्षेत्रक के निराशाजनक निष्पादन के निम्नलिखित कारण रहे हैं-

  • विदेशी वस्तुओं के सस्ते आयात से घरेलू सामान के मांग को बदल दिया गया है।
  • आधारभूत संरचनाओं की कमी के कारण, घरेलू उद्योग उत्पादन की लागत और वस्तुओं की गुणवत्ता के मामले में अपने विकसित विदेशी प्रतिस्पर्धियों से प्रतिसपर्धा नहीं कर सकते हैं।
  • उच्च अप्रशुल्क बाधाओं के कारण भारत जैसे विकासशील देश विकसित देशों के वैश्विक बाजारों तक पहुँच नहीं हैं।
  • उदारीकरण से पहले की अवधि के दौरान घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान किया गया था, लेकिन उदारवाद के समय घरेलू उद्योगों का विकास नहीं किया गया था और इसके परिणामस्वरूप वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके।

प्रश्न 16 सामाजिक न्यायं और जन-कल्याण के परिप्रेक्ष्य में भारत के आर्थिक सुधारों पर चर्चा करें।

उत्तर- उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के माध्यम से वैश्वीकरण के भारत सहित अनेक देशों पर कुछ सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि वैश्वीकरण विश्व बाजारों में बेहतर पहुँच तथा तकनीकी उन्नयन द्वारा विकासशील देशों के बडे उद्योगों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण बनने का अवसर प्रदान कर रहा है। दूसरी ओर आलोचकों का विचार है कि वैश्वीकरण ने विकसित देशों को विकासशील देशों के आन्तरिक बाजार पर कब्जा करने का भरपूर अवसर प्रदान किया है। इसके कारण गरीब देशवासियों का कल्याण ही नहीं वरन् उनकी पहचान भी तिरे में पड़ गई है। विभिन्न देशों और जनसमुदायों के बीच की खाई और विस्तृत हो रही है। आर्थिक सुधारों ने केवल उच्च आय वर्ग की आमदनी और उपभोग स्तर का उन्नयन किया है तथा सारी संवृद्धि कुछ गिने-चुने क्षेत्रों, जैसे-दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, वित्त, मनोरंजन आदि तक सीमित रही है। कृषि विनिर्माण जैसे आधारभूत क्षेत्रक, जो देश के करोड़ों लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं, इन सुधारों से लाभान्वित नहीं हो पाए हैं।

 

अध्याय-4: भारत में मानव पूँजी का निर्माण   

 

Also Visit eStudyzone for English Medium Study Material