दादाभाई नौरोजी
निधन: 30 जून, 1917दादाभाई नौरोजी-उपलब्धियां: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन बार अध्यक्ष, स्वराज (स्व-शासन) की मांग उनके द्वारा 1906 में उनके एक अध्यक्षीय भाषण में सार्वजनिक रूप से व्यक्त की गई
दादाभाई नौरोजी को सम्मानपूर्वक ‘ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ़ इंडिया’ कहा जाता था। वो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखने वाले लोगों में से एक थे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और तीन बार अध्यक्ष भी रहे। स्वराज (स्व-शासन) की मांग उनके द्वारा 1906 में एक अध्यक्षीय भाषण में सार्वजनिक रूप से व्यक्त की गई।
प्रारंभिक जीवन
दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितम्बर 1825 को बम्बई के एक गरीब पारसी परिवार में हुआ था। दादाभाई नौरोजी जब केवल चार साल के थे तब उनके पिता नौरोजी पलांजी डोरडी का देहांत हो गया । उनका पालन-पोषण उनकी माता मनेखबाई द्वारा हुआ जिन्होंने अनपढ़ होने के बावजूद भी यह तय किया कि दादाभाई नौरोजी को यथासंभव सबसे अच्छी अंग्रेजी शिक्षा मिले। एक छात्र के तौर पर दादा भाई नौरोजी गणित और अंग्रेजी में बहुत अच्छे थे।
उन्होंने बम्बई के एल्फिंस्टोन इंस्टिट्यूट से अपनी पढाई पूरी की और शिक्षा पूरी होने पर वहीँ पर अध्यापक के तौर पर नियुक्त हो गए। दादा भाई नौरोजी एल्फिंस्टोन इंस्टिट्यूट में मात्र 27 साल की उम्र में गणित और भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक बन गए। किसी विद्यालय में प्राध्यापक बनने वाले वो प्रथम भारतीय थे।
राजनैतिक जीवन
दादाभाई नौरोजी ने 1852 में राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश किया और 1853 में ईस्ट इंडिया कंपनी की लीज के नवीनीकरण का दृढ़ता पूर्वक विरोध किया। इस सम्बन्ध में उन्होंने अंग्रेजी सरकार को कई याचिकाएं भी भेजीं परन्तु ब्रिटिश सरकार ने उनकी दलीलों को नजर अंदाज करते हुए लीज का नवीनीकरण कर दिया। नौरोजी ने यह महसूस किया कि लोगों की उदासीनता ही भारत पर ब्रिटिश कुशासन की वजह बनी।
उन्होंने वयस्क युवकों की शिक्षा के लिए ‘ज्ञान प्रसारक मंडली’ की स्थापना की। उन्होंने भारत की समस्याओं के बारे में गवर्नर और वायसराय को कई याचिकाएं लिखीं। धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटेन के लोगों और संसद को भारत की दुर्दशा के बारे में अवगत कराया जाना चाहिए इसलिए सन 1855 में 30 साल की उम्र में वह इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए।
इंग्लैंड में दादाभाई नौरोजी कई प्रबुद्ध संगठनों से मिले, कई भाषण दिए और भारत की दुर्दशा पर लेख लिखे। उन्होंने 1 दिसंबर 1866 को ‘ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ की स्थापना की। इस संस्था में भारत के उन उच्च अधिकारियों को शामिल किया गया जिनकी पहुंच ब्रिटिश संसद के सदस्यों तक थी।
दादाभाई नौरोजी 1892 में सेंट्रल फिन्सबरी से लिबरल पार्टी के उम्मीदवार के रूप में ब्रिटिश संसद के लिए चुने गए। उन्होंने भारत और इंग्लैंड में एक साथ आईसीएस की प्रारंभिक परीक्षाओं के लिए ब्रिटिश संसद में प्रस्ताव पारित करवाया। उन्होंने भारत और इंग्लैंड के बीच प्रशासनिक और सैन्य खर्च के विवरण की सूचना देने के लिए विले कमीशन और रॉयल कमीशन भी पारित करवाया।
लड़कियों की पढ़ाई पर जोर दिया
1840 के दशक में उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोला, जिसके कारण रूढ़िवादी पुरुषों के विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन उनमें अपनी बात को सही तरीके से रखने और हवा का रुख मोड़ने के अद्भुत क्षमता थी।
पांच साल के अंदर ही बॉम्बे का लड़कियों का स्कूल छात्राओं से भरा नजर आने लगा। नौरोजी के इरादे और मजबूत हो गए और वह लैंगिक समानता की मांग करने लगे। नौरोजी का कहना था कि भारतीय एक दिन ये समझेंगे कि “महिलाओं को दुनिया में अपने अधिकारों का इस्तेमाल, सुविधाओं और कर्तव्यों का पालन करने का उतना ही अधिकार है जितना एक पुरुष को” धीरे-धीरे, भारत में महिला शिक्षा को लेकर नौरोजी ने लोगों की राय को बदलने में मदद की।
ब्रिटेन साम्राज्य की मान्यताओं को चुनौती
1855 में पहली बार नौरोजी ब्रिटेन पहुंचे। वह वहां की समृद्धि देख स्तब्ध रह गए। वह समझने की कोशिश करने लगे कि उनका देश इतना गरीब और पिछड़ा क्यों है। यहां से नौरोजी के दो दशक लंबे आर्थिक विश्लेषण की शुरुआत हुई, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की उस मान्यता को चुनौती दी जो साम्राज्यवाद को उपनिवेशी देशों में समृद्धि का कारण मानता है। उन्होंने अपनी पढ़ाई से ये साबित किया कि सच दरअसल इस मान्यता के बिल्कुल विपरीत है।
उनके मुताबिक ब्रिटिश शासन, भारत का “खून बहा कर” मौत की तरफ ले जा रहा था और भयावह अकाल पैदा कर रहा था। इससे नाराज कई ब्रितानियों ने उन पर देशद्रोह और निष्ठाहीनता का आरोप लगाया। वह विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि एक उपनिवेश में रहने वाला व्यक्ति सार्वजनिक रूप से इस तरह के दावे कर रहा था। हालांकि साम्राज्यवाद के खिलाफ विचार रखने वाले लोगों को नौरोजी के नए ठोस विचारों से फायदा हुआ।
साम्राज्यवाद के कारण उपनिवेशों से कैसे “धन बाहर गया” पर उनके विचार ने यूरोपीय समाजवादियों, विलियम जेनिंग्स ब्रायन जैसे अमेरिकी प्रगतिशील और संभवतः कार्ल मार्क्स को भी इस मुद्दे से अवगत कराया।
ब्रिटेन की संसद पहुंचने का रास्ता
नौरोजी की ब्रिटिश संसद में पहुंचने की महत्वाकांक्षा के पीछे भारत की गरीबी थी। ब्रिटिश उपनिवेश से आने के कारण वह संसद में चयन के लिए खड़े हो सकते थे, जब तक वो ब्रिटेन में रहकर ऐसा करें। कुछ आयरिश राष्ट्रवादियों के मॉडल की तर्ज पर उनका मानना था कि भारत को वेस्टमिंस्टर में सत्ता के हॉल के भीतर से राजनीतिक परिवर्तन की मांग करनी चाहिए।
भारत में इस तरह का कोई विकल्प नहीं था। इसलिए, 1886 में उन्होंने अपना पहला अभियान होलबोर्न से लॉन्च किया। वो बुरी तरह से पराजित हो गए। लेकिन नौरोजी ने हार नहीं मानी। अगले कुछ वर्षों में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और ब्रिटेन में प्रगतिशील आंदोलनों के बीच गठबंधन किया। नौरोजी महिलाओं के मताधिकार के मुखर समर्थक भी बन गए।
उन्होंने आयरलैंड के घरेलू शासन का समर्थन किया और आयरलैंड से संसद के लिए खड़े होने के करीब भी पहुंचे। उन्होंने खुद को श्रम और समाजवाद के साथ जोड़ दिया, पूंजीवाद की आलोचना की और मजदूरों के अधिकारों के लिए आह्वान किया।
1885 में दादाभाई नौरोजी ने एओ ह्यूम द्वारा स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह तीन बार (1886, 1893, 1906) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। अपने तीसरे कार्यकाल के दौरान उन्होंने पार्टी में नरमपंथी और गरमपंथियों के बीच हो रहे विभाजन को रोका।
कांग्रेस की स्वराज (स्व-शासन) की मांग उनके द्वारा 1906 में एक अध्यक्षीय भाषण में सार्वजनिक रूप से व्यक्त की गई थी। नौरोजी के अनुसार विरोध का स्वरुप अहिंसक और संवैधानिक होना चाहिए। 30 जून 1917 को 92 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।