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बिरसा मुंडा:जीवन परिचय !

बिरसा मुंडा:जीवन परिचय !

बिरसा मुंडा:

बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण नेता थे, जो भूमि-आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासी जन नेता थें। उनका जन्म 15 जुलाई 1875 को छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग में हुआ था। उनका वास्तविक नाम उत्कल मन्गल था, लेकिन उन्हें “बिरसा” कहा जाता था।

बिरसा मुंडा ने अपने जीवन में आदिवासी समुदाय के अधिकारों की रक्षा करने के लिए कई संघर्ष किए। उन्होंने छत्तीसगढ़ और झारखंड के क्षेत्र में आदिवासी जनता को एकजुट करने के लिए कई आंदोलनों का संचालन किया।

बिरसा मुंडा का एक प्रमुख आंदोलन “उल्गुलान” था, जो 1909 में आयोजित किया गया था। इस आंदोलन का उद्देश्य आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा करना था और विदेशी उपनिवेशियों के खिलाफ उनके जमीन छीनने के खिलाफ संघर्ष करना था।

बिरसा मुंडा को 9 जून 1900 को ब्रिटिश शासन के खिलाफ त्रिभुज मंच पर गिरफ्तार किया गया था, और उन्हें रांची की कचहरी में उमाशंकर ब्रॉडबेंट के खिलाफ मुकदमा किया गया था। उन्हें 3 जून 1900 को जेल से रिहा कर दिया गया, लेकिन उनका स्वास्थ्य बहुत खराब था और उन्होंने बर्ड कोट में जेल में ही 9 जून 1900 को अपनी आत्मा त्याग दी।

बिरसा मुंडा को आदिवासी जनता के लिए उनके संघर्ष के लिए सम्मानित किया जाता है और उन्हें “देशवासी” भी कहा जाता है। उनकी स्मृति में, भारत सरकार ने झारखंड राज्य के नामकरण के बाद राज्य की राजधानी को उनके नाम पर रखा है – रांची को “बिरसा नगर” कहा जाता है।

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहली जंग

बिरसा पढ़ाई में बहुत होशियार थे इसलिए लोगों ने उनके पिता से उनका दाखिला जर्मन स्कूल में कराने को कहा। पर इसाई स्कूल में प्रवेश लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरुरी हुआ करता था तो बिरसा का नाम परिवर्तन कर बिरसा डेविड रख दिया गया। कुछ समय तक पढ़ाई करने के बाद उन्होंने जर्मन मिशन स्कूल छोड़ दिया । क्योंकि बिरसा के मन में बचपन से ही साहूकारों के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह की भावना पनप रही थी। इसके बाद बिरसा ने जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ लोगों को जागृत किया तथा आदिवासियों की परम्पराओं को जीवित रखने के कई प्रयास किया। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अन्य जंग

1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिऱμतार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी।

लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग ‘धरती बाबा’ के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। आदिवासियों के ‘धरती पिता’

1894 में बारिश न होने से छोटा नागपुर में भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे समर्पण से अपने लोगों की सेवा की। उन्होंने लोगों को अन्धविश्वास से बाहर निकल बिमारियों का इलाज करने के प्रति जागरूक किया। सभी आदिवासियों के लिए वे ‘धरती आबा’ यानि ‘धरती पिता’ हो गये।

अंग्रेजों ने ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित कर आदिवासियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेजों ने जमींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वो गाँव, जहां वे सामूहिक खेती करते थे, जमींदारों और दलालों में बांटकर राजस्व की नयी व्यवस्था लागू कर दी और फिर शुरू हुआ अंग्रेजों, जमींदार व महाजनों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का शोषण।

इस शोषण के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी फूंकी बिरसा ने। अपने लोगों को गुलामी से आजादी दिलाने के लिए बिरसा ने ‘उलगुलान’ (जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी) की अलख जगाई।

 

 

‘हमारा देश, हमारा राज’

1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ी। यह सिर्फ कोई बगावत नहीं थी। बल्कि यह तो आदिवासी स्वाभिमान, स्वतन्त्रता और संस्कृति को बचाने का संग्राम था। बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया। देखते-ही-देखते सभी आदिवासी, जंगल पर दावेदारी के लिए इकट्ठे हो गये। अंग्रेजी सरकार के पांव उखड़ने लगे। और भ्रष्ट जमींदार व पूंजीवादी बिरसा के नाम से भी कांपते थे।

अंग्रेजी सरकार ने बिरसा के उलगुलान को दबाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन आदिवासियों के गुरिल्ला युद्ध के आगे उन्हें असफलता ही मिली। 1897 से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाईयां हुईं, पर हर बार अंग्रेजी सरकार ने मुंह की खाई। विद्रोह में भागीदारी और अन्त

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिऱμतारियाँ हुईं।

जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिऱतारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिऱμतार कर लिये गये। बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

25 साल की उम्र में बिरसा मुंडा ने जिस क्रांति का आगाज किया वह आदिवासियों को हमेशा प्रेरित करती रही है। बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका मूर्ति भी लगी है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है।

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