Class 11 Geography NCERT Solutions in Hindi
भू आकृतियाँ
अध्याय 6: ” भू आकृतियाँ तथा उनका विकास” 11वीं कक्षा की भूगोल पुस्तक में एक महत्वपूर्ण विषय है, जो पृथ्वी की सतह पर पाई जाने वाली विभिन्न भौतिक आकृतियों और उनके निर्माण की प्रक्रियाओं को समझाता है। इस अध्याय में, छात्र भू-आकृतियों के प्रकार, जैसे पर्वत, पठार, मैदान, घाटियाँ और समुद्र तट, के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करते हैं। इसके साथ ही, यह अध्याय इन आकृतियों के विकास में योगदान देने वाली आंतरिक और बाहरी प्रक्रियाओं, जैसे ज्वालामुखी, भूकंप, नदियों का कार्य, हवा और बर्फ के कारण होने वाले अपरदन की विस्तृत चर्चा करता है।
अध्याय का उद्देश्य छात्रों को यह समझाना है कि भू-आकृतियों का निर्माण और उनका परिवर्तन निरंतर चलने वाली प्रक्रियाएँ हैं, जो हजारों-लाखों वर्षों में विकसित होती हैं। पृथ्वी की सतह पर होने वाले परिवर्तन कैसे प्राकृतिक शक्तियों द्वारा संचालित होते हैं, इसे इस अध्याय में सरल और सटीक ढंग से समझाया गया है। इसके साथ ही, भू-आकृतियों के अध्ययन का महत्व भी बताया गया है, ताकि छात्र प्राकृतिक आपदाओं और पृथ्वी की भू-रचनात्मक गतिविधियों को समझ सकें। इस प्रकार, यह अध्याय भूगोल के अध्ययन के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है।
भू – आकृतियाँ:-
- पृथ्वी के धरातल के निर्माण में अपरदन के कारकों का बहुत बड़ा योगदान होता है। अपरदन के इन कारकों में नदियाँ पवनें, हिमानी तथा लहरें आदि आते हैं।
- ये भूतल की चट्टानों को तोड़ते हैं। उनसे प्राप्त अवसादों को लेकर चलते हैं एवं अन्य कहीं निक्षेपित कर देते हैं। इन प्रक्रियाओं से धरातल पर कई प्रकार की भू – आकृतियों का निर्माण होता है इन सभी भू – आकृतियों को हम अपरदन एवं निक्षेपण से बनी आकृतियों में विभाजित कर सकते हैं।
भू – आकृति विज्ञान:-
भू – आकृति विज्ञान भूतल के इतिहास का अध्ययन है जिसमें इसकी आकृति, पदार्थों व प्रक्रियाओं जिनसे यह भूतल बना है, का अध्ययन किया जाता है।
भूआकृतियाँ:-
- ज्वालामुखी
- कैनियन
- पहाड़
- मैदान
- द्वीप
- झील
- जलप्रपात
- घाटी
अपरदित रूथलरूप:-
नदियों द्वारा बनी आकृतियों में अपरदन से बनी आकृतियां हैं v आकार की घाटी, गार्ज, कैनियन, जलप्रपात एवं अधः कर्तित विसर्प।
निक्षेपित स्थलरूप:-
निक्षेपण से बनी आकृतियों के अन्तर्गत नदी वेदिकाएँ, गोखुर झील, गुंफित नदी आती हैं।
नदी | प्रवाहित जल:-
नदी द्वारा निर्मित स्थलरुप विकास की विभिन्न अवस्थाएं:-
- युवावस्था (पहाड़ी प्रदेश में)
- प्रौढ़ावस्था (मैदानी प्रदेशों में)
- वृद्धावस्था (डेल्टा क्षेत्रों में)
युवावस्था:-
- नदियों की यह अवस्था पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है और इस अवस्था में नदियों की संख्या बहुत कम होती है।
- ये नदियाँ v- आकार की घाटियाँ बनाती हैं जिनमे बाढ़ के मैदान अनुपस्थित या संकरे बाढ़ मैदान मुख्य नदी के साथ साथ पाए जाते हैं।
- इसमें जल विभाजक अत्यधिक चौड़े होते हैं जिनमे दलदल और झीलें होती हैं।
प्रौढ़ावस्था:-
- नदियों की यह अवस्था मैदानी क्षेत्रों में पाई जाती है। इस अवस्था में नदियों में जल की मात्रा अधिक होती है और बहुत सारी सहायक नदियाँ भी आकर इसमें मिल जाती हैं।
- नदी घाटियाँ v -आकार की होती हैं लेकिन गहरी होती हैं। इस अवस्था में नदी व्यापक होती है और विस्तृत होती है इसलिए विस्तृत बाढ़ के मैदान पाए जाते हैं।
- जिसमे घाटी के भीतर ही नदी विसर्प बनती हुई बहती है।
वृद्धावस्था:-
ये अवस्था डेल्टा क्षेत्रों में पाई जाती है है तथा इस अवस्था में, छोटी सहायक नदियाँ कम हो जाती हैं। और ढाल धीरे धीरे मंद हो जाता है तथा नदियाँ स्वतंत्र रूप से विस्तृत बाढ़ के मैदानों में बहती है और नदी विसर्प, प्राकृतिक तटबंध, गौखुर झील आदि बनाती हैं।
अपरदित स्थलरुप
घाटियाँ:-
- घाटियों का प्रारंभ छोटी छोटी सरिताओं से होता है, ये छोटी सरिताएँ धीरे धीरे लम्बी और विस्तृत अवनलिकाओं के रूप में विकसित हो जाती हैं और यही अवनलिकाएं धीरे धीरे और गहरी हो जाती हैं तथा चौड़ी और लम्बी होकर घाटियों का रूप ले लेती हैं।
- लम्बाई, चौड़ाई और आकृति के आधार पर इन घाटियों को बांटा गया है – v – आकार घाटी, गार्ज, कैनियन।
गार्ज:-
- गार्ज एक गहरी संकरी घाटी है जिसके दोनों किनारे तेज ढ़ाल वाले होते हैं।
- गार्ज की चौड़ाई इसके तल व ऊपरी भाग में करीब एक बराबर होती है।
- गार्ज कठोर चट्टानी क्षेत्रों में बनता है।
कैनियन:-
- कैनियन के किनारे भी खड़ी ढाल वाले होते हैं तथा गार्ज ही की तरह गहरे होते हैं।
- कैनियन का ऊपरी भाग तल कि तुलना में अधिक चौड़ा होता है।
- कैनियन का निर्माण अक्सर अवसादी चट्टानों के क्षैतिज स्तरण में पाए जाने से होता है।
जल गर्तिका:-
नदी तल में फँसकर छोटे चट्टानी टुकड़े एक ही स्थान पर गोल – गोल घूमकर गर्त बना देते हैं इसे जलगर्तिका कहते हैं।
अवनमित कुंड (PlungePool):-
जल प्रपात के तल में एक गहरे तथा बड़े जलगर्तिका का निर्माण होता है जो जल के ऊँचाई से गिरने एवं उसमें शिलाखंडो के वृत्ताकार घूमने से निर्मित होते हैं। जलप्रपातों के तल में ऐसे विस्तृत तथा गहरे कुंड को अवनिमित कुंड (Plunge Pool) कहते हैं ये कुंड घाटियों को गहरा करने में मददगार होते हैं।
नदी वेदिकाएं:-
नदी वेदिकाएं शुरूआती बाढ़ के मैदानों अथवा प्राचीन नदी घाटियों के तल चिह्न हैं। ये वेदिकाएं बाढ़ के मैदानों में लम्बवत् अपरदन से निर्मित होती हैं। भिन्न – भिन्न ऊचाईयों पर अनेक वेदिकाएं हो सकती हैं जो आरम्भिक नदी जल स्तर को दिखाती हैं।
नदी वेदिकाएं के प्रकार:-
नदी वेदिकाएं दो प्रकार की होती है।
-
- युग्मित वेदिकाएं
- अयुग्मित वेदिकाएं
युग्मित वेदिकाएं:-
यदि नदी वेदिकाएं नदी के दोनों ओर समान ऊँचाई वाली होती हैं तो इन्हें युग्मित वेदिकाएं कहते हैं।
अयुग्मित वेदिकाएँ:-
जब नदी के सिर्फ एक तट या किनारे पर वेदिकाएँ मिलती है तथा दूसरे पर नहीं अथवा किनारों पर इनकी ऊँचाई में अन्तर होता है तो ऐसी वेदिकाओं को अयुग्मित वेदिकाएँ कहते हैं।
नदी वेदिकाओं की उत्पत्ति के कारण:-
नदी वेदिकाएं निम्न कारणों से उत्पन्न होती हैं:-
- जल प्रवाह का कम होना।
- जलवायु परिवर्तन की वजह से जलीय क्षेत्र में परिवर्तन।
- विर्वतनिक कारणों से भूउत्थान।
- यदि नदियाँ तट के समीप होती हैं तो समुद्र तल में परिवर्तन।
जल प्रपात:-
नदी का जल जब किसी ऐसी कठोर चट्टान से गुजरता है, जिसे वह काट नहीं पाती और आगे मुलायम चट्टान आ जाती है जिसे वह आसानी से काट लेती है तो धीरे – धीरे नदी के तल मे अन्तर आ जाता है और उसका जल ऊपर से नीचे प्रपात के रूप में गिरने लगता है।
क्षिप्रिका:-
नदी तल पर जब कठोर एंव नरम चट्टानें क्रम से आ जाती हैं तो नदी उस पर सीढी जैसी आकृति बनाते हुये बहने लगती हैं इस प्रक्रिया में छोटे – छोटे कई प्रपात बन जाते हैं इन्हें क्षिप्रिकाएँ कहते हैं।
निक्षेपित स्थलरुप
जलोढ़ पंखों:-
जब नदी पर्वतीय क्षेत्रों से नीचे आती है तो उसका प्रवाह धीमा पड़ जाता है और वह अपने साथ आए कंकड़ पत्थरों को तिकोने पंखें के आकार में जमा कर देती है। यही जलोढ़ पंख कहलाता है।
डेल्टा:-
नदियाँ समुद्र मे गिरते समय अधिक अवसाद एवं मंद ढाल के कारण बहुत ही मंद गति से बहती हैं एवं अवसाद को त्रिभुजाकार आकृति में जमा कर देती हैं जिसे डेल्टा कहते हैं।
बाढ़ के मैदान:-
- जिस प्रकार अपरदन से घाटियाँ बनती हैं उसी प्रकार निक्षेपण से बाढ़ के मैदानों का निर्माण होता है।
- बाढ़ के मैदान नदी के निक्षेपण का प्रमुख स्थलरुप हैं बारीक पदार्थ जैसे रेत, मिटटी के कण, कंकड़, पत्थर, नदी के आसपास के निचले क्षेत्रो में जमा हो जाते हैं और इस प्रकार हर साल बाढ़ आने पर पानी तटों पर फैलता है तो ये उस जगह जमा हो जाते हैं और इन्ही को बाढ़ के मैदान कहा जाता है।
नदी विसर्प:-
नदी मार्ग में S आकार के घुमाव को नदी विसर्प कहा जाता है। जब नदी मंद गति से मैदानी भागों में बहती है तो अत्याधिक बोझ के कारण इस प्रकार के मोड़ बनाती है। नदी के बाहरी किनारे पर अपरदन तथा भीतरी किनारे पर निक्षेप से घुमाव का आकार बढ़ता जाता है। जो कालांतर में नदी से अलग हो जाता है जिसे गोखुर झील कहते हैं।
गुम्फित नदी:-
नदी की निचली घाटी में बहाव की गति मन्द पड़ जाती है और नदी अपने लाए अवसादों को जमा करने लगती है। इससे नदी कई शाखाओं में बंट जाती है। ये शाखाएं बालू की बनी दीवार से एक दूसरे से अलग होती हैं। शाखाओं में बंटी ऐसी नदी को गुम्फित नदी कहते हैं।
भौमजल (Groundwater):-
जल धरातल के नीचे चट्टानों की संधियों, छिद्रों, से होकर क्षैतिज अवस्था में बहता जल का क्षैतिज और उर्वार्धर प्रवाह ही चट्टानों के अपरदन का कारण है | चूना युक्त चट्टानें आद्र क्षेत्रों में जहाँ वर्षा अधिक होती है रासायनिक क्रिया द्वारा कई स्थलरूपों का निर्माण करती है।
भूमिगत जल / भौग जल द्वारा निर्मित अपरदित स्थलरूपों:-
- घोल रंध्र:-
ये कीप के आकार के गर्त होते हैं जो ऊपर से वृताकार होते हैं। इनकी गहराई आधा मीटर से 30 मीटर या उससे भी अधिक होती हैं।
- विलय रंध्र:-
ये कुछ गहराई पर घोल रंध के निचले भाग से जुड़े होते हैं। चूना पत्थर चट्टानों के तल पर सुघन क्रिया द्वारा इनका निर्माण होता है।
- लैपिज:-
धीरे – धीरे चुनायुक्त चट्टानों के अधिकतर भाग गौं व खाइयों में बदल जाते हैं और पूरे क्षेत्र में अत्याधिक अनियमित पतले व नुकीले कटक रह जाते हैं, जिन्हें लैपिज कहते हैं। इनका निर्माण चट्टानों की संधियों में घुलन प्रक्रियाओं द्वारा होता है।
भूमिगत जल / भौग जल द्वारा निर्मित निक्षेपित स्थल रूप:-
- स्टैलेक्टाइट:-
यह चूना प्रदेशों में निक्षेपण प्रक्रिया से बनी स्थलाकृति है। कंदराओं की छत से चूना मिला हुआ जल टपकता है। टपकने वाली बूदों का कुछ अंश छत में ही लटका रह जाता है। इसका पानी भाप बनकर उड़ जाता है और चूना छत में लगा रह जाता है। ऐसी लटकती हुई स्तंभो की आकृति को स्टैलेक्टाइट कहते हैं।
- स्टैलेग्माइट:-
जब चूना मिश्रित जल कंदराओं की छत्त से नीचे धरातल पर गिरता है तो जल वाष्पित हो जाता है लेकिन चूना वही धरातल जम जाता है। इस प्रकार कंदराओं के धरातल पर एक स्तंभ खड़ा हो जाता है। जिसे स्टैलेग्माइट कहते है।
- स्तंभ:-
विभिन्न मोटाई के स्टैलेक्टाइट व स्टैलेग्माइट दोनों बढ़कर आपस में जुड़ जाते हैं जिसे कंदरा स्तंभ या चूना स्तंभ कहते हैं।
हिमनद:-
हिमनद पृथ्वी पर मोटी परत के रूप में हिम प्रवाह अथवा पर्वतीय ढालों से घाटियों की ओर रैखिक प्रवाह के रूप में बहने वाली हिम संहति को कहा जाता है।
हिमनद कितने प्रकार के होते है ?
ये दो प्रकार की है:-
- महाद्वीपीय हिमनद अथवा गिरीपद हिमनद:- ये वे हिमनद हैं जो विशाल समतल क्षेत्र पर हिम की परत के रूप में फैले हुए हैं।
- पर्वतीय अथवा घाटी हिमनद:- ये वे हिमनद हैं जो पर्वतीय ढालों पर घाटियों में बहते हैं।
हिमनद की विशेषताए:-
- प्रवाहित जल की अपेक्षा हिमनद का प्रवाह काफी मन्द होता है।
- हिमनद प्रतिदिन कुछ सेंटीमीटर से लेकर कुछ मीटर तक प्रवाहित हो सकता है।
- हिमनद मुख्यतः गुरूत्वबल के कारण गतिमान होते हैं।
हिमनद द्वारा निर्मित अपरदित स्थल:-
- सर्क:- हिमानी के ऊपरी भाग में तल पर अपरदन होता है जिसमें खड़े किनारे वाले गर्त बन जाते हैं जिन्हें सर्क कहते हैं।
- टार्न झील:- सर्क में हिमनदों के पिघलने से जल भर जाता है। जिसे टार्न झील कहते हैं।
- श्रृंग:- जब दो सर्क एक दूसरे से विपरीत दिशा में मिल जाते है तो नुकीली चोटी जैसी आकृति बन जाती है। जिसे श्रृंग कहा जाता है।
हिमनद द्वारा निर्मित निक्षेपित स्थल:-
- ड्रमलिन:- हिमनद द्वारा एकत्रित रेत व बजरी का ढेर ड्रमलिन कहलाता है।
- भेड़ शिला:- रेत, बजरी एवं गोलाश्मों का एक ढेर जिसका ढ़ाल एक तरफ मंद एवं दूसरी तरफ तीव्र होता है।
फियोर्ड:-
अत्यधिक गहरे हिमनद गर्त जिनमें समुद्री जल भर जाता है तथा जो समुद्री तटरेखा पर होती हैं उन्हें फियोर्ड कहते हैं।
मोनाडनोक (Monadanox):-
अपवाह बेसिन के मध्य विभाजक तब तक निम्न होत जाते हैं जब तक ये पूर्णतः समतल नहीं होते और आखिर कार एक धीमे उच्चावच का निर्माण होता है जिसमें कहीं – कहीं अवरोधी चट्टानों के अवशेष दिखाई देते हैं इसे मोनाइनोक कहते हैं।
इंसेलबर्ग:-
अपरदन के परिणामस्वरूप मरूस्थलीय क्षेत्रों में पर्वतों के अवशिष्ट के रूप में खड़ी भू – आकृतियाँ इसेलबर्ग कहलाती हैं।
पवनों द्वारा अपरदन व निक्षेपण तथा उनसे बनी भू – आकृतियों का वर्णन:-
- पवनों द्वारा अपरदन एवं निक्षेपण उसके द्वारा उड़ाकर ले जाने वाले कणों की मात्रा पर निर्भर होता है।
- यह मरूस्थलों एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में अधिक होता है जहां दूर तक अवरोध मुक्त क्षेत्र होता है।
- पवन मोटे रेतकणों को अधिक ऊँचाई तक नहीं उठा पाती। अतः अपरदन कार्य थोड़ी ऊँचाई तक ही सीमित रहता है।
- पवन रेगमाल की तरह मौजूद चट्टानों को रगड़ता है।
- अपरदित पदार्थ को परिवहित करना पवन की गति पर निर्भर करता है।
- इन्हीं सिद्धान्तों पर आधारित निम्नलिखित आकृतियों का निर्माण शुष्क मरुस्थल व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में होता है :
- छत्रक शैल:- तेज हवायें किसी शैल को अपवाहित कणों द्वारा काट देती हैं तो ऊपर की शैल छतरी जैसी बन जाती है।
- बरखान:- पवनें अपने साथ जिन रेतकणों को लेकर चलती हैं गति मद होने पर एक जगह इकट्ठी हो जाती है और अर्द्धचन्द्राकर रूप धारण कर लेती है। इनका एक तरफ ढाल मंद और दूसरी तरफ तीव्र होता है। ये टिब्बे आगे की ओर खिसकते रहते हैं।
अध्याय-6: भू – आकृतियाँ तथा उनका विकास FAQs
प्र. 1: भू-आकृतियाँ क्या होती हैं?
उत्तर: भू-आकृतियाँ पृथ्वी की सतह पर पाई जाने वाली भौतिक संरचनाएँ होती हैं, जैसे पर्वत, पठार, मैदान, घाटियाँ, और समुद्र तट। ये आकृतियाँ प्राकृतिक प्रक्रियाओं जैसे ज्वालामुखी, भूकंप, नदियों के कार्य और अपरदन के कारण बनती और परिवर्तित होती हैं।
प्र. 2: भू-आकृतियों के विकास में कौन सी प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं?
उत्तर: भू-आकृतियों के विकास में आंतरिक (ज्वालामुखी, भूकंप) और बाहरी (नदियों का कार्य, हवा, बर्फ) प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं। ये प्रक्रियाएँ हजारों वर्षों तक चलती हैं और धीरे-धीरे पृथ्वी की सतह पर विभिन्न आकृतियों का निर्माण करती हैं।
प्र. 3: आंतरिक प्रक्रियाएँ क्या हैं?
उत्तर: आंतरिक प्रक्रियाएँ वे प्रक्रियाएँ हैं जो पृथ्वी के आंतरिक भाग से शुरू होती हैं, जैसे ज्वालामुखी और भूकंप। ये प्रक्रियाएँ पृथ्वी की सतह को ऊपर उठाने या धँसाने में मदद करती हैं।
प्र. 4: बाहरी प्रक्रियाएँ क्या हैं?
उत्तर: बाहरी प्रक्रियाएँ पृथ्वी की सतह पर काम करने वाली शक्तियों से जुड़ी होती हैं, जैसे नदियों का कार्य, हवा, बर्फ और समुद्र की लहरों द्वारा अपरदन। ये प्रक्रियाएँ भू-आकृतियों को धीरे-धीरे बदलती हैं।
प्र. 5: अपरदन क्या है?
उत्तर: अपरदन वह प्रक्रिया है जिसमें पानी, हवा, बर्फ या अन्य प्राकृतिक तत्वों द्वारा मिट्टी और चट्टानें घिसकर या कटकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होती हैं।
प्र. 6: भू-आकृतियों का अध्ययन क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: भू-आकृतियों का अध्ययन हमें पृथ्वी की सतह पर होने वाले प्राकृतिक परिवर्तनों और आपदाओं को समझने में मदद करता है। इससे हम भविष्य की आपदाओं की बेहतर तैयारी कर सकते हैं और संसाधनों का प्रबंधन कर सकते हैं।