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रख्माबाई:जीवन परिचय!

रख्माबाई:जीवन परिचय!

रख्माबाई

रख्माबाई

रख्माबाई का जन्म 22 नवंबर, 1864 को महाराष्ट्र में हुआ था। इनके पिता का नाम जनार्दन पाडुरंग था और माता का नाम जंयतीबाई था। जंयतीबाई के पिता का नाम हरिशचन्द्र यादो जी था। जंयतीबाई का जन्म 1848 में हुआ था। सन् 1864 के शुरु में जंयतीबाई का विवाह जर्नादन पाडुरंग हुआ था। रख्माबाई जब ढाई साल की थी तब इनके पिता पाडुरंग की पीलिया रोग के कारण मृत्यु हो गयी थी। जर्नादन पाडुरंग ने मृत्यु से पहले अपनी सारी सम्पत्ति अपनी पत्नी जंयतीबाई के नाम कर दी थी।

जंयतीबाई प्रगतिशील विचारो की महिला थी। इन्होंने पुरोहितो और पोथाधारियों की व्यवस्था को चुनौती देते हुए, विधवा पुर्नविवाह किया था। जंयतीबाई उच्च श्रेणी की हिंदू महिला नहीं थीं। ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वे शूद्र वर्ग की बढ़ाई जाति से आती थीं। यह तथ्यपरक बात है कि उन दिनों पिछड़े और दलित समाज में विधवा के पुनर्विवाह पर रोक नहीं थी। पिछड़े और दलित समाज के लोग अपनी विधवा पुत्रियों की पुनर्विवाह कर दिया करते थे।

इतिहासविद् सुधीर चंद्र ने ठीक ही लिखा है- ह्यअपने पहले पति की मृत्यु के छह वर्ष बाद जयंबाई ने सखराम अर्जुन नामक एक विधुर से विवाह कर लिया था। वे लोग सुतर बढ़ाई जाति के थे, जिसमें विधवाओं के पुनर्विवाह की अनुमति थी।ह्ण यहां देखा जा सकता है यदि जंयतीबाई द्विजों की बेटी होती तो उनका पुनर्विवाह संभव नहीं था। यह तथ्य बताते है कि पिछड़े और दलित समाज के लोग स्त्री मुद्दों पर प्रगतिशील की भूमिका निभाते आयें है। जयंतीबाई ने अपने पुनर्विवाह से पहले अपने पूर्व पति से मिली सारी सम्पत्ति बेटी रख्माबाई के नाम करवा दी थी।

रख्माबाई

उन दिनों भारतीय समाज बाल विवाह, बेमेल विवाह और वृद्ध विवाह आदि सामाजिक कुरीतियों में पूरी तरह से जकड़ा हुआ था। रख्माबाई बाल विवाह की कुरीति का शिकार हो गई थी। जब रख्माबाई की उम्र ग्यारह साल की थी, तभी उनका विवाह दादाजी भीकाजी से इस शर्त पर कर दिया गया था कि दादाजी भीकाजी पढ़-लिख कर एक अच्छा इंसान बनेगा। और, भीकाजी के पढ़ाई लिखाई का खर्च रख्माबाई के सौतेले पिता उठाएगें। दादाजी भीकाजी रख्माबाई और उनके परिवार की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। दादाजी भीकाजी का पढ़ाई-लिखाई से कुछ लेना-देना नहीं था। वह गलत संगत में पड़कर अपना जीवन बर्बाद कर बैठा था।

वह रख्माबाई का घर छोड़कर अपने मामा के साथ रहने लगा था। उसके मामा का नाम नारायण धर्मा था। वे संपन्न परिवार से थे। उन्हे भौतिक वस्तुओं से ज्यादा लगाव था, जिसकी चपेट में दादाजी भीकाजी भी आ गया था। भीकाजी के मामा का चरित्र ठीक नहीं था। उन्होनें पत्नी के रहते हुए भी एक रखैल रख रखी थी। यह बात रख्माबाई को अच्छी नहीं लगी होगी कि उनका संबंद्घ जिस परिवार से है, उस परिवार के व्यक्ति रखैल रखे। दादाजी भीका जी अपने मामा की बुरी संगत में पड़कर काफी बीमार हो गया था। उसे यह भी तक खयाल नहीं रहा कि वह एक प्रतिष्ठित परिवार का दामाद है।

रख्माबाई

रख्माबाई के विवाह के ग्यारह वर्ष बीत जाने के बाद भी पति-पत्नी ने दाम्पत्य जीवन नहीं जीया था। भीकाजी अपने मामा नारायण धर्मा के घर पर रहते था। रख्माबाई एक दो बार उनके मामा के घर गयी थी। इसके बाद नारायण धर्मा के घर नही गई। इसके कई कारण हो सकते है। इनमें से एक कारण नारायण धर्मा का चरित्रहीन होना भी हो सकता है। रख्माबाई के सौतेले पिता सखाराम चाहते थे कि रख्माबाई की शिक्षा में कोई व्यवधान नहीं पड़े, इसलिए रख्माबाई को दादा जी के साथ भेजने से उनके पिता ने मना कर दिया था। भीकाजी उन पर बार-बार यह दवाब बनाता रहा कि रख्माबाई को उसके साथ भेज दिया जाय।

दरअसल, उसकी नजर रख्माबाई की संपत्ति पर थी। वह इसीलिए रख्माबाई को अपने घर लाने के प्रयास में लगा हुआ था। उसके काफी प्रयासों के बावजूद रख्माबाई उसके साथ जाने के लिये तैयार नहीं हुईं। आखिर में, दादाजी भीकाजी ने मार्च 1884 में रख्माबाई को अपने घर लाने के लिये अदालत का दरवाजा खटखटाया। भीकाजी की तरफ से कई कानूनी पत्र भी रख्माबाई के पिता को भेजे गए। इन पत्रों में इस बात पर जोर दिया गया था कि उसकी पत्नी को उसके पास भेज दिया जाय।

दादाजी भीकाजी कुछ काम नहीं करते थे। सखाराम ने दादाजी भीकाजी के यह शर्त रख दी कि यदि दादाजी भीकाजी अपनी पत्नी को रखने के लिए घर का इंतजाम कर ले तो रख्माबाई को ले जा सकते हैं। दादाजी भीकाजी ने रख्माबाई को लाने के लिए कुछ लोग भेजे, लेकिन रख्माबाई ने उनके साथ जाने से इंकार कर दिया था। रख्माबाई की यही से स्त्री स्वंतत्रता की लड़ाई शुरू होती है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के लिहाज से यह बहुत बड़ी घटना थी कि जब किसी स्त्री ने अपने पति के साथ जाने से माना कर दिया था।

कुछ समय बाद फिर से रख्माबाई पर दादाजी भीकाजी ने अपने साथ रहने के लिए दबाव डाला। परंतु, रख्माबाई ने यह कहते हुए मना कर दिया कि दादाजी भीकाजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है, मैं उनके साथ अपना जीवन व्यतीत नही कर सकती हूं।

 

अब रख्माबाई का मुकदमा अदालत में था। रख्माबाई के वकील एफ.एल. लैथम, मेरी तैलंग और जेडी पैरवी कर रहे थे। ये तीनों वकील उस समय के बड़े कानूनविद् माने जाते थे। रख्माबाई को ब्रिटिश कानून से बड़ी उम्मीद थी। वे इस बात को अच्छी तरह से जानती थी कि ब्रिटिश कानून ही उन्हें इस पति से मुक्ति दिला सकता है। भीकाजी के वकीलों ने इस मुकदमें को वैवाहिक पुर्नस्थापन का मुकदमा बनाना चाहा था। गौरतलब है कि रख्माबाई और दादाजी भीकाजी का विवाह होने के बाद भी उनका दांपत्य जीवन शुरू नही हुआ था। इसलिए यह मुकदमा वैवाहिक पुर्नस्थापना का मुकदमा मानने से जज ने इनकार कर दिया था।

रख्माबाई

इस ऐतिहासिक मुकदमें की सुनवाई जज पिनी कर रहे थे। जज पिनी इस मुकदमे का फैसला जल्द से जल्द करना चाहते थे। वे दोनों पक्षों के विचार जानने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि रख्माबाई को पति के साथ रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।

जज पिनी ने कहा- ‘‘मुझे ऐसा लगता है कि इन परिस्थितियों में एक युवा महिला को उस पुरूष के पास जाने के लिए बाध्य करना जिसे वह नापसंद करती हो, ताकिझ्र वह पुरूष उसकी इच्छा के खिलाफ उसके साथ सहवास कर सके एक बर्बर, क्रूर और घृणित कृत्य होगा।’’ रख्माबाई स्त्री अधिकारों की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही थी। उन्हें विजय प्राप्त होनी ही थी। जज पिनी ने इस मुकदमा का ऐतिहासिक फैसला सुना दिया।

‘‘कानून के अनुसार, मैं वादी को उसके द्वारा मांगी गई राहत प्रदान करने के लिए, और इस बाईस वर्षीय युवा महिला को उसके साथ उसके घर में रहने का आदेश देने के लिए ताकि वादी उक्त महिला के साथ उसके मासूम बचपन में हुए अपने विवाह को परिणति तक पहुंचा सके, बाध्य नहीं हूं।’’ जज पिनी के इस ऐतिहासिक फैसले की प्रतिक्रिया ब्रिटिश भारत और ब्रिटेन दोनों देशों मे खूब हुई। जज पिनी के इस फैसले कुछ विद्वानों ने स्त्री मुक्ति से जोड़कर देखा तो कुछ ने इस फैसलों को विवाह संस्था पर हुए कुठाराघात के रूप में देखा।

अंतत: रख्माबाई और दादाजी भीकाजी के बीच समझौता हुआ कि रख्माबाई दादाजी भीकाजी के अदालत में खर्च की भरपाई करे। दादा भीकाजी ने भरपाई के रुप में रख्माबाई से दो हजार रुपए की मांग की। तब दो हजार रुपए एक बहुत बड़ी धनराशि थी। रख्माबाई ने दो हजार रुपए देकर अपनी आजादी खरीदी थी। दादाजी भीकाजी ने रुपए मिलते ही फौरन दूसरी शादी कर ली थी। इस प्रकार उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में रख्माबाई के केस ने बाल विवाह को लेकर एक बड़ी बहस को जन्म दिया था। रखमाबाई के इस केस ने भारत में एज आॅफ कंसेंट एक्ट 1891 के पारित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

इस कानून से भारत में सभी लड़कियों (विवाहित और अविवाहित) से यौन संबंध स्थापित करने में सहमति लिए जाने की उम्र 10 साल से बढ़ाकर 12 साल कर दी गई. भले ही आज यह बहुत बड़ा बदलाव समझ नहीं आता हो लेकिन इस अधिनियम ने ही पहली बार यह तय किया कि कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाने वाले को सजा हो सकती है, भले ही वह विवाहित क्यों ना हो. इसके उल्लंघन को बलात्कार की श्रेणी में रखा गया।

शादी खत्म होने के तुरंत बाद रखमाबाई ने 1889 में लंदन स्कूल आॅफ मेडिसिन फॉर वीमेन में दाखिला लिया। उन्होंने 1894 में स्नातक की पढ़ाई पूरी की, लेकिन वो आगे एमडी करना चाहती थीं.

लंदन स्कूल आॅफ मेडिसिन उस समय तक महिलाओं को एमडी नहीं करवाता था. उन्होंने मेडिकल स्कूल के इस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की. इसके बाद उन्होंने ब्रसेल्स से अपनी एमडी पूरी की. रखमाबाई भारत की पहली महिला एमडी और प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर बनीं। हालांकि पति से अलग होने के उनके फैसले के कारण बहुत से लोगों से उन्हें आलोचनाएं सुनने को मिली लेकिन वो रुकी नहीं। रखमाबाई ने शुरू में मुंबई के कामा अस्पताल में काम किया लेकिन बाद में वो सूरत चली गईं. उन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए समर्पित कर दिया और 35 सालों तक प्रैक्टिस की. उन्होंने कभी दोबारा शादी नहीं की।

रख्माबाई

रख्माबाई ने स्त्री समस्यां को लेकर गहन विमर्श तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी। रख्माबाई के केस ने लाखों स्त्रियों की पीड़ा को सामने रखने का काम किया था। उस केस ने बता दिया था कि बाल विवाह के चलते स्त्रियों का जीवन कितना नर्क बन गया था।

रख्माबाई ने बाल विवाह को स्त्री के गुलामी का कारण माना है। उन्होंने बाल-विवाह को अनर्थकारी प्रथा माना था। वे विवाह संबंधी कानूनों में बदलाव चाहती थी। रख्माबाई ने बेमेल विवाह के बिल्कुल खिलाफ थीं। उनका मानना था कि विवाह के समय लड़को और लड़की की उम्र ज्यादा अंतर नहीं होना चाहिए। रख्माबाई को रानी विक्टोरिया से बड़ी आस थी कि वे स्त्रियों को बाल विवाह और विधवा जीवन के कारागार से आजाद करवाएंगीं।

अहिल्याबाई होल्कर :जीवन परिचय!

 

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