- वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- 1. वन्य समाजों का परिचय:
- 2. औपनिवेशिक शासन का आगमन और वन्य समाजों पर प्रभाव:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- 3. वन्य समाजों की प्रतिक्रिया: वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- 4. औपनिवेशिक वन नीति का उद्देश्य: वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- 5. वन्य समाजों के जीवन में बदलाव: वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- 6. विद्रोहों के कारण और प्रभाव:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- 7. आज के समय में वन्य समाज:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- निष्कर्ष:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- वन्य-समाज और उपनिवेशवाद Q/A
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वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
वन्य-समाज और उपनिवेशवाद -परिचय:
यह अध्याय उन वन्य समाजों और उनके जीवन के तरीकों पर प्रकाश डालता है, जिन्हें औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश शासन के दौरान गहराई से प्रभावित किया गया। औपनिवेशिक शासन ने वन्य समाजों के पारंपरिक जीवन, उनके आर्थिक संसाधनों और उनकी संस्कृति को बदलने की कोशिश की। इस अध्याय में वन और उनकी अर्थव्यवस्था के महत्व, औपनिवेशिक हस्तक्षेप, और उनके परिणामों पर चर्चा की गई है।
1. वन्य समाजों का परिचय:
- वन्य समाजों का जीवन:
- वन्य समाज वे समुदाय हैं जो वनों में रहते थे और अपने जीवन-यापन के लिए वनों पर निर्भर थे।
- ये समाज खेती, शिकार, पशुपालन, और कुटीर उद्योगों पर निर्भर थे।
- वनों के साथ उनका गहरा सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संबंध था।
- वन्य समाजों के प्रकार:
- शिकारी और संग्रहकर्ता: ये समाज वन्य उत्पादों जैसे फल, जड़ें, शहद आदि पर निर्भर थे।
- स्थानांतरित कृषक: ये समुदाय स्थान बदलकर खेती करते थे।
- चरवाहे: ये पशुपालन करते थे और अपने जानवरों के साथ घूमा करते थे।
2. औपनिवेशिक शासन का आगमन और वन्य समाजों पर प्रभाव:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- वन्य क्षेत्रों का दोहन:
- ब्रिटिश शासन ने वनों को आर्थिक संसाधन के रूप में देखा।
- लकड़ी का उपयोग रेल की पटरियों, जहाज निर्माण, और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए किया गया।
- वनों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाए गए।
- वन कानून और उनके प्रभाव:
- 1865, 1878, और 1927 के वन कानून लागू किए गए।
- इन कानूनों ने वन्य समाजों को वनों के उपयोग से वंचित कर दिया।
- स्थानांतरित खेती, शिकार, और पशुओं को चराने पर पाबंदी लगाई गई।
- वनों को ‘संरक्षित’, ‘अधिसूचित’, और ‘आरक्षित’ क्षेत्रों में बाँटा गया।
- उपजाऊ भूमि की लूट:
- ब्रिटिश सरकार ने वनों को साफ कर खेती की जमीन बढ़ाने पर जोर दिया।
- चाय, कॉफी, और रबर के बागानों के लिए वन काटे गए।
3. वन्य समाजों की प्रतिक्रिया: वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- विद्रोह और संघर्ष:
- वन्य समाजों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किए।
- संथाल विद्रोह (1855-57), बस्तर विद्रोह (1910), और बिरसा मुंडा आंदोलन (1899-1900) इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
- इन आंदोलनों में वन्य समाजों ने अपनी पारंपरिक जमीन और संसाधनों के लिए संघर्ष किया।
- अपनी पहचान की रक्षा:
- वन्य समाजों ने अपने रीति-रिवाजों, परंपराओं और जीवनशैली को बचाने की कोशिश की।
- उन्होंने नए तरीकों से ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
4. औपनिवेशिक वन नीति का उद्देश्य: वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- राजस्व प्राप्त करना:
- वन से लकड़ी का निर्यात और कृषि भूमि से कर वसूली के माध्यम से राजस्व बढ़ाना।
- सैन्य और औद्योगिक विकास:
- ब्रिटिश साम्राज्य के सैन्य और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए वनों का उपयोग करना।
- रेलवे विस्तार के लिए बड़े पैमाने पर लकड़ी का दोहन।
- श्रमिकों का शोषण:
- वन उत्पादों के संग्रह के लिए आदिवासी लोगों को श्रमिकों के रूप में उपयोग किया गया।
- चाय और रबर बागानों में काम करने के लिए जबरन मजदूरी करवाई गई।
5. वन्य समाजों के जीवन में बदलाव: वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- आर्थिक प्रभाव:
- वन्य समाजों की आर्थिक स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
- उनकी पारंपरिक आजीविका समाप्त हो गई।
- सामाजिक प्रभाव:
- वनों के पारंपरिक उपयोग पर पाबंदियों के कारण समाज के भीतर असंतोष बढ़ा।
- सामाजिक संरचना में बदलाव हुआ।
- संस्कृतिक प्रभाव:
- वनों से जुड़े रीति-रिवाज और परंपराएं कमजोर हुईं।
- उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप किया गया।
6. विद्रोहों के कारण और प्रभाव:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- विद्रोहों के कारण:
- औपनिवेशिक कानूनों के कारण वन्य समाजों की पारंपरिक आजीविका छिन गई।
- वनों में प्रवेश और संसाधनों पर अधिकार सीमित कर दिया गया।
- करों और जबरन मजदूरी के कारण लोगों में असंतोष बढ़ा।
- विद्रोहों का प्रभाव:
- इन आंदोलनों ने औपनिवेशिक शासन को वन्य समाजों की समस्याओं पर ध्यान देने के लिए मजबूर किया।
- कुछ हद तक कानूनों में सुधार हुआ।
7. आज के समय में वन्य समाज:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
- आधुनिक समस्याएँ:
- शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण वनों का तेजी से नुकसान।
- वन्य समाजों को उनकी जमीन से विस्थापित किया जाना।
- संविधान में प्रावधान:
- भारतीय संविधान के तहत वन्य समाजों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान हैं।
- वन अधिकार अधिनियम, 2006, ने आदिवासी समाजों को उनके परंपरागत अधिकार लौटाने का प्रयास किया।
- संरक्षण और विकास:
- वन्य समाजों के अधिकारों और उनके संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ रही है।
- सरकार और गैर-सरकारी संगठन उनके आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए काम कर रहे हैं।
निष्कर्ष:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
वन्य समाज और उपनिवेशवाद का अध्ययन हमें इस बात की समझ देता है कि कैसे औपनिवेशिक शासन ने प्राकृतिक संसाधनों और समाज पर प्रभाव डाला। वन्य समाजों ने अपने अधिकारों और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष किया, जो उनके जुझारूपन और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। वर्तमान में, उनके अधिकारों की सुरक्षा और उनके विकास के लिए प्रयास करना हमारे समाज की ज़िम्मेदारी है।
वन्य-समाज और उपनिवेशवाद Q/A
प्रश्न 1 – औपनिवेशिक काल के वन प्रबंधन में आए परिवर्तनों ने इन समूहों को कैसे प्रभावित किया:वन्य-समाज और उपनिवेशवाद
1) झूम खेती करने वालों को
2) घुमंतू और चरवाहा समुदायों को
3) लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को
4) बागान मालिकों को
5) शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को।
उत्तर – झूम खेती करने वालों को – यूरोपीय वन रक्षकों की नजर में यह तरीका जंगलों के लिए नुकसानदेह था उन्होंने महसूस किया कि जहां कुछ के सालों के अंदर पर खेती की जा रही हो, ऐसी जमीन पर रेलवे के लिए इमारती लकड़ी वाले पेड़ नहीं उगाए जा सकते। साथ ही जंगल जलाते समय बाकी बेशकीमती पेड़ों के भी फैलती लपटों की चपेट में आ जाने का खतरा बना रहता है। इसलिए सरकार ने झूम खेती पर रोक लगाने का फैसला किया। इसके परिणाम स्वरूप अनेक समुदायों को जंगलों में उनके घरों से जबरन विस्थापित कर दिया गया। कुछ को अपना पेशा बदलना पड़ा तो कुछ को छोटे-बड़े विद्रोह के जरिए प्रतिरोध किया।
घुमंतू और चरवाहा समुदायों को – अंग्रेजों के आने के बाद व्यापार पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में चला गया। ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन-उत्पादों के व्यापार की जिम्मेदारी सौंप दी। स्थानीय लोगों द्वारा शिकार करने और पशुओं को चराने पर बंदिशे लगा दी गई। इस प्रक्रिया में मद्रास प्रेसीडेंसी के कोरावा, कराचा व येरुकुला जैसे अनेक चरवाहे और घुमंतू समुदाय अपनी जीविका से हाथ धो बैठे।
इनमें से कुछ को ‘ अपराधी कबीले’ कहा जाने लगा और यह सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों, व बागानों में काम करने के लिए मजबूर हो गए। काम के नए अवसरों का मतलब यह नहीं था कि उनकी जीवन स्थिति में हमेशा सुधार ही हुआ हो। असम के चाय बागानों में काम करने के लिए झारखंड के संथाल और उरांव व छत्तीसगढ़ के गोंड जैसे आदिवासी मर्द व औरतों, दोनों की भर्ती की गई। उनकी मजदूरी बहुत कम थी और कार्यपरिस्थितियों उतनी ही खराब। उन्हें उनके गांव से उठाकर भर्ती तो कर लिया गया था लेकिन उनकी वापसी आसान नहीं थी।
लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को – ब्रिटिश सरकार ने बड़ी-बड़ी कंपनियों यूरोपियों बागान मालिकों को वन-उत्पाद के व्यापार को सौंप दिया था। इन इलाकों की बाड़ीबंदी करके जंगलों को साफ कर दिया गया और चाय-कॉफी की खेती की जाने लगी जिसके चलते वन-उत्पादों और इमारती लकड़ी का व्यापार खत्म हो गया।
बागान मालिकों को – यूरोप में चाय- कॉफी और रबड़ की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया। जहां पर बागान मालिक चाय-कॉफी की खेती करके मकान के मालिक बन गए और अधिक लाभ कमाने लगे।
शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को – जंगल संबंधी नए कानूनों ने वनवासियों के जीवन को एक और तरह से प्रभावित किया। वन कानूनों के पहले जंगलों में या उनके आसपास रहने वाले बहुत सारे लोग हिरन, तीतर जैसे छोटे मोटे शिकार करके जीवन यापन करते थे। यह पारंपरिक प्रथा अब गैर-कानूनी हो गई। एक तरफ वन कानूनों ने लोगों को शिकार के परंपरागत अधिकार से वंचित किया। वही बड़े जानवरों का आखेट एक खेल बन गया।
हिंदुस्तान में बाघों और दूसरे जानवरों का शिकार करना सदियों से दरबारी और नवाबों संस्कृति का हिस्सा रहा था। अंग्रेजों की नजर में बड़े जानवर जंगली बब्बर और आदि समाज के प्रतीक – चिन्ह थे। उनका मानना था कि खतरनाक जानवरों को मारकर में हिंदुस्तान को सभ्य बनाएंगे।
प्रश्न 2– बस्तर और जावा के औपनिवेशिक वन प्रबंधन में क्या समानताएं हैं?
उत्तर – बस्तर और जावा दोनों इलाकों में ही वन अधिनियम लागू किया गया। वन अधिनियम को तीन भागों में बांटा गया। इसमें दो बार संशोधन किया गया। 1878,1927, आरक्षित, सुरक्षित व ग्रामीण सबसे अच्छे जंगलों को आरक्षित वन कहा गया। अधिनियम में चरवाहे और घुमंतु समुदाय के लोगों को भी आने जाने की अनुमति से भी रोक लगा दी गई। कुछ गांव को आरक्षित वनों में इस शर्त पर रहने दिया गया कि वे वन- विभाग के लिए पेड़ों की कटाई और धुलाई का काम करेंगे और जंगल को आग से बचाए रखेंगे।
यूरोपीय कंपनियों को वन की कटाई की अनुमति दे दी गई और बागान मालिक वहां अपनी चाय कॉफी की खेती का उद्योग चलाने के लिए आजाद हो गए थे। वन के प्रबंधन के डच और अंग्रेज ने यूरोपीय लोगों को चुना और उन्हें जिम्मेदारी सौंप दी।
प्रश्न 3 – सन 1880 से 1920 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के वनाच्छादित क्षेत्र में 97 लाख हेक्टेयर की गिरावट आई। पहले के 10.86 करोड़ हेक्टेयर से घटकर यह क्षेत्र 9.89 करोड़ हेक्टेयर रह गया था। इस गिरावट में निम्नलिखित कारकों की भूमिका बताएं:
1) रेलवे
2) जहाज निर्माण
3) कृषि – विस्तार
4) व्यवसायिक खेती
5) चाय – कॉफी के बागान
6) आदिवासी और किसान
उत्तर – रेलवे – 1850 के दशक में रेल लाइनों के प्रसार ने लकड़ी के लिए एक नई तरह की मांग पैदा कर दी। शाही सेना के आवागमन और औपनिवेशिक व्यापार के लिए रेल लाइनें अनिवार्य थी। ईजनों को चलाने के लिए ईंधन के तौर पर और रेल की पटरियों को जोड़े रखने के लिए स्लीपरो के रूप में लकड़ी की जरूरत पड़ी थी। इसलिए भारी मात्रा में पेड़ों को काटा गया जिसके कारण जंगल साफ होता गया।
जहाज निर्माण – जहाज निर्माण के लिए मजबूत और टिकाऊ लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है जिसकी वजह से वनों को तेजी से काटा गया।
कृषि – विस्तार – व्यवसायिक खेती को बढ़ावा देने के लिए भारी मात्रा में पेड़ों को काटकर वनों को साफ किया गया ताकि वहां पर खेती की जा सकें। फसलों में पटसन, गन्ना, गेहूं व कपास के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया गया। उन्नीसवीं सदी के रूप में बढ़ती शहरी आबादी का पेट भरने के लिए अन्य और औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की आवश्यकता हुई।
व्यवसायिक खेती – औपनिवेशिक सरकार के हिसाब से बियाबान पर खेती करके उससे राजस्व और कृषि उत्पादों और कृषि विस्तार को बढ़ावा मिलेगा। इस तरह राज्य की आय में बढ़ोतरी की जा सकती थी। यही वजह थी कि 1880 से 1920 के बीच खेती योग्य जमीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की बढ़त हुई।खेती के विस्तार को हम विकास का सूचक मानते हैं।
चाय – कॉफी के बागान – चाय – कॉफी के बागान को बढ़ावा देने के लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया।
आदिवासी और किसान – आदिवासियों को अपना पैसा बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। किसानों ने नए कानूनों का फायदा उठाया और खेती-बाड़ी करके अपना जीवन – यापन बसर करने लगे।
प्रश्न 4 – युद्ध से जंगल क्यों प्रभावित होते हैं?
उत्तर – पहले और दूसरे विश्व युद्ध का जंगलों पर गहरा असर पड़ा। भारत में तमाम चालू कार्ययोजनाओं को स्थगित कर के वन विभाग में अंग्रेजों की जमी जरूरत को पूरा करने के लिए बेतहाशा पेड़ काटे। जापानियों के कब्जे से ठीक पहले डचों ने ‘ भस्म कर भागो नीति’ अपनाई जिसके तहत आरा मशीनों और सागौन के विशाल लट्ढो के ढेर जला दिए गए जिससे वह जापानियों के हाथ ना पाएं। इसके बाद जापानियों ने वनवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके अपने युद्ध उद्योगों के लिए जंगलों का निर्मम दोहन किया।