- भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ (Bhakti-Sufi Traditions)
- FAQs on “भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ”
- 1. भक्ति-सूफ़ी परंपराओं का मुख्य उद्देश्य क्या था?
- 2. भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत कौन थे?
- 3. सूफी परंपराओं के प्रमुख विचार क्या थे?
- 4. भक्ति और सूफी परंपराओं के विकास का ऐतिहासिक संदर्भ क्या था?
- 5. भक्ति और सूफी परंपराओं में क्या समानताएँ हैं?
- 6. भक्ति आंदोलन में ‘निर्गुण’ और ‘सगुण’ भक्ति क्या है?
- 7. सूफी परंपरा के प्रमुख केंद्र कौन-कौन से थे?
- 8. भक्ति-सूफी परंपराओं का साहित्यिक योगदान क्या है?
- 9. भक्ति और सूफी आंदोलनों के प्रभाव क्या थे?
- 10. भक्ति-सूफी परंपराएँ आज के समाज में कैसे प्रासंगिक हैं?
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- FAQs on “भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ”
भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ (Bhakti-Sufi Traditions)
भारत मे भक्ति व सूफी आंदोलन :-
- सल्तनत काल मे हिन्दू मुस्लिम संस्कृति के संघर्ष का काल था।
- सल्तनत काल के साथ ही भारत मे तीव्र गति से इस्लाम का प्रचार या प्रसार हुआ। दिल्ली के सुल्तानो ने इस्लाम के प्रचार या प्रसार के लिए हिन्दू – धर्म पर अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए और उन्होने हिन्दू मन्दिरो व मूर्तियो को तोड़ दिया और हिन्दुओ को जबरदस्ती मुसलमान बनाया।
- दोनो में एक – दूसरे के विरुद्ध विरोध की भावनाएँ जागृत हो गई। हिन्दू धर्म ने अपने धर्म की रक्षा के लिए एकीय स्वर्गीयवाद पर बल दिया। जब लाखो हिन्दू मुसलमान बनने लगे तो हिन्दू धर्म की बुराइयों को दूर करने के लिए धर्म सुधारको ने एक आंदोलन चलाया यही आंदोलन भक्ति आंदोलन के नाम से जाना जाता है। साथ ही मुसलमानों ने सूफी सम्प्रदायो पर जोर देना प्रारंभ कर दिया और वही सूफी आंदोलन कहलाया।
भारत मे भक्ति आंदोलन:-
- भक्ति आन्दोलन का आरम्भ दक्षिण भारत में आलवारों एवं नायनारों से हुआ जो कालान्तर में (800 ई से 1700 ई के बीच) उत्तर भारत सहित सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में फैल गया।
- अल्वार और नयनार दक्षिणी भारत में भक्ति आंदोलन के संस्थापक माने जाते थे।
- अल्वार भगवान विष्णु के भक्त थे, जबकि नयनार शैव धर्म के अनुयायी थे।
- अल्वार और नयनार दोनों ने समाज में प्रचलित सामाजिक और धार्मिक दुर्भावनाओं की कड़ी आलोचना की। इन्होंने जाति प्रथा और ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज उठाई।
- इन्होंने स्त्रियों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। अलवर की दो महिला संत – अंडाल और नयनार की अम्माईयर की करइक्काल ने समाज को एक नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- चोल, पल्लव और चालुक्य ने अलवर और नयनार दोनों पंथों का संरक्षण किया।
- नलयिरादिव्यप्रबंधम् अलवार संतो का मुख्य संकलन है। इस ग्रंथ को तमिल में पंचम वेद का स्थान प्राप्त है।बासवन्ना ने कर्नाटक में वीरशैव या लिंगायतों की स्थापना की और अपने पंथ के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भक्ति आंदोलन के कारण :-
- मुस्लिम आक्रमणकारियो के अत्याचार
- धर्म व जाति की समाप्ति का भय
- इस्लाम का प्रभाव
- राजनीतिक संगठन
- रूढ़िवादिता
- पारंपरिक मतभेद
- हिन्दुओ को निराशा
भक्ति आंदोलन की विशेषता :-
- एकेश्वरवाद मे विश्वास
- बाहय अंडबरों का विरोध
- सन्यासी का विरोध
- मानव सेवा पर बल
- वर्ण व्यवस्था का विरोध
- हिन्दु मुस्लिम एकता पर बल
- स्थानीय भाषाओ मे उपदेश
- गुरु के महत्व में बृद्धि
- समन्यवादी प्रकृति
- समर्पण की भावना
- समानता पर बल
भक्ति आंदोलन के उद्देश्य :-
- हिन्दू धर्म व समाज मे सुधार लाना।
- धर्म मे समन्वय इस्लाम व हिन्दू।
भारत मे सूफीवाद / सूफी संप्रदाय का विकास (सूफी आंदोलन)
- रहस्यवादी एव उदारवादी विचारों से प्रभावित होकर इस्लाम धर्म में एक संप्रदाय का उदय हुआ जो सूफी संप्रदाय कहा जाता है। सूफीवाद का जन्म इस्लाम के उदय से हुआ है।
- सूफी शब्द की उत्पत्ति सूफी शब्द से हुई है। सूफी का अर्थ होता है बिना रंगा हुआ ऊन / इसका अर्थ होता है चटाई जिसे सन्यासी धारण करते हैं
- सूफीवाद 19वीं शताब्दी में मुद्रित एक अंग्रेजी शब्द है। इस्लाम ग्रंथो में इसको तसव्वुर्फ का प्रयोग किया गया है। कुछ विद्वान इसे सूफ अर्थ ऊन से निकला बताते हैं। यह खुरदरे ऊनी कपड़े को दर्शाता है। जो सूफी पहनते हैं।
- 11 वी शताब्दी तक सूफीवाद एक पूर्ण विकसित आंदोलन बना जिसका सूफी ओर कुरान से जुड़ा अपना साहित्य था।
- संस्थागत दृष्टि से सूफी अपने को एक संगठित समुदाय खानकाह (जहाँ सूफी यात्री निवास करते हैं) के इर्द – गिर्द स्थापित करते थे। खानकाह का नियंत्रण गुरु या शेख, पीर अथवा मुर्शिद या चेला के हाथ मे था। वो अनुयायियों (मुरीदों) की भर्ती करते थे और वाइस (खलीफा) की नियुक्ति करते थे।
एकेश्वरवादी :-
- एकेश्वरवाद वह सिद्धान्त है जो ‘ईश्वर एक है’ अथवा ‘एक ईश्वर है‘ विचार को सर्वप्रमुख रूप में मान्यता देता है।
- भौतिक जीवन का त्याग
- शांति एवं अहिंसा में विश्वास
- सहिष्णुता (सभी धर्मों का सम्मान)
- प्रेम को महत्व
- इस्लाम पर प्रचार
- शैतान बाधक
- ह्रदय की शुध्दता पर जोर
- गुरु एव शिष्य का महत्व
- भारी आंडबरो का विरोध
- पवित्र जीवन पर बल देना
- मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति और उनके आदर्शों के पालन पर बल दिया। उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को इंसान – ए – कामिल बताते हुए इनका अनुसरण करने की सीख दी। उन्होंने कुरान की व्यख्या आपने निजी आधार पर की।
इस्लाम :-
’ इस्लाम ‘ एक एकेश्वरवादी धर्म है जो अल्लाह की तरफ़ से अंतिम रसूल और नबी, मुहम्मद द्वारा इंसानों तक पहुंचाई गई अंतिम ईश्वरीय किताब (कुरआन) की शिक्षा पर स्थापित है। इस्लाम की स्थापना 7 वीं शताब्दी में पैगंबर मुहम्मद ने अजाबिया में की थी।
इस्लाम के स्तंभ हैं :-
- शहादा
- सलात या नमाज़
- सौम या रोज़ा
- ज़कात
- हज
- इस्लाम की पवित्र पुस्तक कुरान शरीफ है। यह अरबी में लिखा गया है और इसमें 114 अध्याय हैं।
- मुस्लिम परंपरा के अनुसार कुरान उन संदेश का संकलन है जो भगवान (अल्लाह) ने अपने दूत अर्ख ल जिब्रीस के माध्यम से मक्का और मदीना में 610 – 632 के बीच मुहम्मद को भेजने के लिए भेजा था।
इस्लाम की महत्वपूर्ण सिलसिलें :-
- चिश्ती सिलसिला
- सुहरावर्दी सिलसिला
- कादिरी सिलसिला
- नक़शबन्दी सिलसिला
सिलसिला :-
सिलसिला का शाब्दिक अर्थ जंजीर जो शेख और मुरीद के बीच निरंतर रिश्ते का भोतक है जिसकी पहली अटूट कड़ी पैगम्बर मोहम्मद से जुड़ी है।
सूफी और राज्य के साथ उनके संबंध :-
- चिश्ती सम्प्रदाय की एक और विशेषता सयंम और सादगी का जीवन था। जिसमे सस्ता से दूर रहने पर बल दिया जाता था।
- सत्ताधारी विशिष्ट वर्ग अगर बिन माँगे अनुदान भेट देते थे तो सूफी संत उसे अस्वीकार कर देते थे। सुल्तान ने खानकाहों को कर मुक्त एव भूमि अनुदान में दी और दान संबधी न्यास स्थापित किया।
- चिश्ती धर्म और सामान के रूप में दान स्वीकार करते थे किंतु इनको सझोने की बजय रहने, कपड़े, खाने की व्यवस्था और अनुष्ठानों जैसे समा की महफ़िलो पर पूरी तरह खर्च कर देते थे और इस तरह आम लोगो को इनकी तरफ झुकाव बढ़ता चला गया।
- सूफी संतो की धर्म निष्ठा, विध्दता और लोगो द्वारा उनकी चमत्कारिक शक्ति मे विश्वास उनकी लोकप्रियता का कारण बनी। इस वजहों से शासक भी उनका समर्थन हासिल करना चाहते थे।
- मध्यस्थ के रूप पष्ट भी माना जाता पाफिलिया में से लोगोणी जामनाओ और आध्यात्मिक गाने सुधार लानेन कार्य करते थे। इसलिए शासक लोग अपनी जन सूफी दरगाहो और खानकाहो के नजदीक बनाना चाहते थे।
- कमी – कभी सूफी शेखो जो आंडबर पुर्ण पदवि/उपाधि से संबोधित किया जाता था। उदाहरण शेख निजामुद्दीन ओलिया के अनुयायी सुल्तान – अल – मशख (आर्थात शेखो मे सुल्तान) कहकर सम्बोधित करते थे।
सूफी भाषा और संपर्क :-
- न केवल समा से चिश्तियों ने स्थानीय भाषा को अपनाया अपितु दिल्ली चिश्ती सिलसिले के लोग हिन्दवी में बातचीत करते थे।
- बाबा फरीद ने भी क्षत्रिय भाषा मे काव्य स्चना की। जो गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित है। कुछ और सूफियो ने लबी कविताए लिखी जहाँ ईश्वर के प्रति प्रेम को मानवीय रूप में दर्शाया गाया है।
- सूफी कविता सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दियों में बीजापुर कर्नाटक के आस – पास इस क्षेत्र से बसने वाले चिशती संतो के द्वारा लिखि गई ये रचनाएँ सम्भवतः औरतो द्वारा घर का काम जैसे चक्की पीसने, चरखा काटते हुए गई जाती है।
शारिया :-
शारिया मुसलमानों को निर्देशित करने वाले कानून है। यह सरीफ कुरान और हदीश पर आधारित है। हदीश का शाब्दिक अर्थ है पैगम्मर से जुड़ी परम्पराए।
भक्ति :-
मोक्ष प्राप्ति के अंतिम उद्देश्य के साथ भगवान की भक्ति को भक्ति कहा जाता है। भक्ति शब्द को मूल ‘ भज ‘ से लिया गया था जिसका अर्थ है आराध्य। भक्त जो अवतार और मूर्ति पूजा के विरोधी थे, संत के रूप में जाने जाते हैं। कबीर, गुरु नानक देव जी और गुरु नानक देव जी के उत्तराधिकारी प्रमुख भक्ति संत हैं। भारतीय समाज पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव महत्वपूर्ण और दूरगामी था।
हिंदू धर्म के मतभेदों या परंपराओं के बीच अंतर और संघर्ष :-
- तांत्रिक साधनापुराणिक परंपराएं वैदिक परंपराएं तांत्रिक साधना में लगे लोगों ने अक्सर वेदों के अधिकार को नजरअंदाज कर दिया।इसके अलावा, भक्त अक्सर अपने चुने हुए देवता, या तोविष्णु या शिव को सर्वोच्च के रूप में मानते थे।वैदिक परंपराओं में प्रमुख देवता अग्नि, इंद्र और सोम हैं,उपमहाद्वीप के कई हिस्सों में तांत्रिक प्रथाएं व्यापक थीं – वे महिलाओं और पुरुषों के लिए खुली थीं, और चिकित्सकों ने अक्सर अनुष्ठान के संदर्भ में जाति और वर्ग के मतभेदों को नजरअंदाज कर दिया।भक्ति रचनाओं का गायन और जप अक्सर इस तरह की साधना का एक हिस्सा था। यह वैष्णव और शैव वर्गों के लिए विशेष रूप से सच था।वैदिक परंपरा को महत्व देने वालों ने अक्सर दूसरों की प्रथाओं की निंदा की।उन्होंने बलिदानों का पालन किया या मंत्रों का सटीक उच्चारण किया।अल्वार और नयनार इस परंपरा का हिस्सा थे।वैदिक प्रथाएं केवल पुरुषों और ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के लिए थीं। उन्होंने लंबे वैदिक भजन और विस्तृत बलिदान देकर वैदिक परंपरा का अभ्यास किया।
विभिन्न धार्मिक विश्वास और प्रथाएं :-
- देवी और देवताओं की एक विस्तृत श्रृंखला मूर्तिकला के साथ – साथ ग्रंथों में भी पाई गई थी। पुराणिक ग्रंथों की रचना और संकलन सरल संस्कृत भाषा में किया गया था जो महिलाओं और शूद्रों के लिए सुलभ हो सकता था, जो आमतौर पर वैदिक शिक्षा से वंचित थे। कई मान्यताओं और प्रथाओं को स्थानीय परंपराओं के साथ पुराणिक परंपराओं के निरंतर मेलिंग के माध्यम से आकार दिया। गया था। ओडिशा का जगन्नाथ पंथ स्थानीय आदिवासी विशेषज्ञों द्वारा लकड़ी से बना स्थानीय देवता था और इसे वि रूप में मान्यता प्राप्त थी।
- स्थानीय देवताओं को अक्सर पुरातन ढांचे के भीतर शामिल किया गया था, उन्हें प्रमुख देवताओं की पत्नी के रूप में एक पहचान प्रदान करके। उदाहरण के लिए, वे विष्णु की पत्नी लक्ष्मी या शिव की पत्नी पार्वती के साथ समान थे। उप – महाद्वीप के कई हिस्सों में तांत्रिक साधनाएँ व्यापक थीं। इसने शैव धर्म के साथ बौद्ध धर्म को भी प्रभावित किया।
- वैदिक अग्नि, इंद्र और सोम के प्रमुख देवता पाठ्य या दृश्य अभ्यावेदन में शायद ही कभी दिखाई देते थे। अन्य सभी धार्मिक मान्यताओं, जैसे बौद्ध धर्म, जैन धर्म, तांत्रिक प्रथाओं ने वेदों के अधिकार को अनदेखा कर दिया। भक्ति रचना का गायन और जप वैष्णव और शैव संप्रदायों के लिए विशेष रूप से पूजा का एक तरीका बन गया।
प्रारंभिक भक्ति परंपरा :-
- इतिहासकारों ने भक्ति परंपराओं को दो व्यापक श्रेणियों अर्थात निर्गुण (विशेषताओं के बिना) और सगुण (विशेषताओं के साथ) में वर्गीकृत किया है।
- छठी शताब्दी में, भक्ति आंदोलनों का नेतृत्व अल्वार (विष्णु के भक्त) और नयनार (शिव के भक्त) ने किया था।
- उन्होंने तमिल भक्ति गीत गाते हए जगह जगह यात्रा की। अपनी यात्रा के दौरान, अल्वार और नयनार ने कुछ धार्मिक स्थलों की पहचान की और बाद में इन स्थानों पर बड़े मंदिरों का निर्माण किया गया।
- इतिहासकारों ने सुझाव दिया कि अल्वार और नयनारों ने जाति व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। अल्वार द्वारा रचित नलयिरा दिव्यप्रबंधम को तमिल वेद के रूप में वर्णित किया गया था।
स्त्री भक्त :-
- इस परंपरा की विशेषता थी इसमे स्त्रियों को भी स्थान था। अंडाल, कराईकल अम्मारियार जैसी महिला भक्तों ने भक्ति संगीत की रचना की, जिसने पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती दी।
- अंडाल नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत गाए जाते। अंडाल खुद को भगवान विष्णु की प्रेयसी मानकर प्रेम भावना छन्दों में व्यक्त करती थी।
- शिवभक्त स्त्री कराइकाल अम्मइयार ने घोर तपस्या के मार्ग अपनाया।
- नयनार परम्परा में उनकी रचना को सुरक्षित रखा गया।
कर्नाटक में वीरशैव परंपरा :-
- कर्नाटक में 12 वीं शताब्दी में बसवन्ना नाम के एक ब्राह्मण के नेतृत्व में एक नया आंदोलन उभरा। उनके अनुयायियों को वीरशैव (शिव के नायक) या लिंगायत (लिंग के वस्त्र) के रूप में जाना जाता था। यह शिव की पूजा लिंग के रूप में करते है इस क्षेत्र में लिंगायत आज भी एक महत्वपूर्ण समुदाय बने हुए हैं।
- लिंगायत ऐसा मानते थे की भक्त मृत्यु के बाद शिव में लीन हो जायेगा इस संसार में दुबारा नहीं लौटेगा। लिंगायतो ने पुनर्जन्म को नहीं माना। लिंगायतो ने जाति प्रथा का विरोध किया। ब्रह्मनीय समाजिक व्यवस्था में जिनके साथ भेदभाव होता था वो लिंगायतो के अनुयायी हो गए। लिंगायतो ने वयस्क विवाह, विधवा पुनर्विवाह को मान्यता दी।
- लिंगायतों ने जाति, प्रदूषण, पुनर्जन्म के सिद्धांत आदि के विचार को चुनौती दी और युवावस्था के बाद के विवाह और विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया।
- वीरशैव परंपरा की हमारी समझ कन्नड़ में वचनों (शाब्दिक रूप से कही गई) से ली गई है, जो आंदोलन में शामिल हुई महिलाओं और पुरुषों द्वारा बनाई गई हैं।
उत्तरी भारत में धार्मिक उफान :-
- इसी काल में उत्तरी भारत में भगवान शिव और विष्णु की उपासना मंदिरों में की जाती थीं। मंदिर शासको की सहायता से बनाए गए थे। उत्तरी भारत में इस काल में राजपूत राज्यों का उदभव हुआ। इन राज्यों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था। ब्राह्मण अनुष्ठानिक कार्य (पूजा, यज्ञ) करते थे।
- ब्राह्मण वर्ग को चुनौती शायद ही किसी ने दी हो। इसी समय कुछ ऐसे धार्मिक नेता भी सामने आए जो रूढ़िवादी ब्रह्मनीय परम्परा से बाहर आए। ऐसे नेताओं में नाथ, जोगी सिद्ध शामिल थे।
- अनेक धार्मिक नेताओं ने वेदों की सत्ता को चुनौती दी। अपने विचारों को आम लोगों की भाषा में सबके सामने रखा। इसके बाद तुर्क लोगों का भारत में आगमन हुआ। इसका असर हिन्दू धर्म और संस्कृति पर पड़ा।
इस्लामी परम्पराएँ :-
- प्रथम सहस्राब्दी ईसवी में अरब व्यापारी समुन्द्र के रास्ते से पश्चिमी भारत के बंदरगाहों तक आए।
- इसी समय मध्य एशिया से लोग देश के उत्तर – पश्चिम प्रांतो में आकर बस गए।
- सातवी शताब्दी में इस्लाम के उद्भव के बाद ये क्षेत्र इस्लामी विश्व कहलाया।
शासको और शासितों के धार्मिक विश्वास :-
- 711 ईसवी में मुहम्मद बिन कासिम नाम के एक अरब सेनापति ने सिंध को जीत लिया और उसे खलीफा के क्षेत्र में शामिल कर लिया
- 13 वीं शताब्दी में, तुर्क और अफगानों ने भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली सल्तनत की स्थापना की।
- 16वी शताब्दी में मुगल सल्तनत की स्थापना हुई। सैद्धांतिक रूप से, मुस्लिम शासकों को उलमा द्वारा निर्देशित किया जाना था और शरीयत के नियमों का पालन करना था। लेकिन ऐसा कर पाना मुश्किल था क्युकी एक बड़ी जनसंख्या इस्लाम को मानने वाली नहीं थी।
जिम्मी :-
- जिम्मी ऐसे लोग थे जो गैर मुसलमान थे जैसे – हिन्दू, ईसाई, यहूदी।
- गैर – मुसलमानों को जजिया नामक कर का भुगतान करना पड़ता था और मुस्लिम शासकों द्वारा संरक्षित होने का अधिकार प्राप्त होता था।
- अकबर और औरंगज़ेब सहित कई मुगल शासकों ने भूमि की बंदोबस्ती की और हिंदू, जैन, पारसी, ईसाई और यहूदी धार्मिक संस्थानों को कर में छूट दी। बहुत से शासको ने भूमि अनुदान व कर में छूट दी।
लोक प्रचलन में इस्लाम :-
- इस्लाम के आने के बाद समाजो में बहुत परिवर्तन हुए। किसान, शिल्पकार, योद्धा, व्यपारी इन सबमे बदलाब हुए।
- लोग कभी – कभी उस क्षेत्र के संदर्भ में पहचाने जाते थे जहां से वे आए थे। प्रवासी समुदायों को अक्सर म्लेच्छ के रूप में जाना जाता जिसका अर्थ है कि वे जाति, समाज और बोली जाने वाली भाषाओं के मानदंडों का पालन नहीं करते थे जो कि संस्कृत से उत्पन्न नही थे।
- इन्होंने इस्लाम धर्म कबूल किया।
- इस्लाम अपनाने वाले सभी लोगों ने विश्वास के पांच स्तंभों को स्वीकार किया|
इस्लाम धर्म की पाँच बाते :-
- एक ईश्वर, अल्लाह और पैगंबर मुहम्मद उनके दूत हैं।
- दिन में पाँच बार नमाज़ अदा करना (नमाज़ / सलात)।
- भिक्षा देना (ज़कात)।
- रमज़ान के महीने में उपवास (सवाम)।
- मक्का (हज) की तीर्थयात्रा करना।
सूफीवाद का विकास :-
- इस्लाम के शुरुआती शताब्दियों में, धार्मिक दिमाग वाले लोगों का एक समूह, जिसे सूफी कहा जाता है, खिलाफत के बढ़ते भौतिकवाद के विरोध में तप और रहस्यवाद में बदल गया।
- सूफियों ने कुरान की व्याख्या करने की हठधर्मी परिभाषाओं और विद्वानों के तरीकों की आलोचना की और अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर इसकी व्याख्या की।
खानकाह :-
- खानकाह में सूफी संत रहते थे ये उनका निवास स्थल था।
- 11 वीं शताब्दी तक, सूफीवाद एक अच्छी तरह से विकसित आंदोलन में विकसित हुआ।
- सुफो ने शेख, पीर या मुर्शिद के नाम से एक शिक्षण गुरु द्वारा नियंत्रित धर्मशाला या खानकाह (फारसी) के आसपास समुदायों को संगठित करना शुरू किया। उन्होंने शिष्यों (मुरीदों) को नामांकित किया और एक उत्तराधिकारी (खलीफा) नियुक्त किया।
सूफी सिलसिला :-
- सूफी सिलसिला का अर्थ एक श्रृंखला है, जो गुरु और शिष्य के बीच एक निरंतर कड़ी को दर्शाता है, पैगंबर मुहम्मद के लिए एक अखंड आध्यात्मिक वंशावली के रूप में फैला है।
- जब शेख की मृत्यु हो गई, तो उनका मकबरा – दरगाह (दरगाह) उनके अनुयायियों की भक्ति का केंद्र बन गया और उनकी कब्र पर तीर्थयात्रा या ज़ियारत की प्रथा, विशेषकर पुण्यतिथि की शुरुआत हुई।
चिश्ती सिलसिला :-
- चिश्ती सम्प्रदाय भारत मे सबसे अधिक लोकप्रिय सम्प्रदाय संघ तथा इसकी स्थापना ख्वाजा अब्दुल चिश्ती ने 10वीं शताब्दी में की। चिश्ती सम्प्रदाय को प्रसिद्ध करने में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का योगदान रहा।
- ज्यादातर सूफी वंश उन्हें स्थापित करने वाले के नाम पर पड़े। उदहारण कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी के नाम पर पड़ा। कुछ अन्य सिलसिलो का नामकरण उनके जन्म स्थान पर हुआ। जैसे चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान के चिश्ती शहर से लिया गया है।
- 12 वी शताब्दी के अंत मे भारत आने वाले सूफी समुदायो में चिश्ती सबसे ज्यादा प्रभावशाली था। कारण यह था कि न केवल उन्होंने अपने आपको स्थानीय परिवेश में अच्छी तरह ढाला बल्कि भक्ति परम्परा में कई गई विशिष्टताओ को भी अपनाया।
चिश्ती खानकाह में जीवन :-
- खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र था।
- चौदहवीं शताब्दी में घियासपुर में यमुना नदी के तट पर शेख निज़ामुद्दीन की धर्मशाला बहुत प्रसिद्ध थी। शेख यहाँ रहते थे और सुबह और शाम आगंतुकों से मिलते थे।
- वहाँ एक खुली रसोई (लंगर) थी और यहाँ सुबह से लेकर देर रात तक हर क्षेत्र के लोग आते थे।
- यहां आने वालों में अमीर हसन सिज्जी, अमीर खुसरु और जियाउद्दीन बरनी शामिल थे।
- सूफी संतों की कब्रों के लिए तीर्थयात्रा (ज़ियारत) आम थी। यह सूफियों की आध्यात्मिक कृपा (बरकत) मांगने का एक अभ्यास था।
चिश्ती उपासना जियारत ओर कव्वाली
ज़ियारत :-
- ज़ियारत का अर्थ सूफी संतों की कब्रों की तीर्थयात्रा करना था। इसका मुख्य उद्देश्य सूफी से आध्यात्मिक अनुग्रह प्राप्त करना था। संगीत और नृत्य ज़ियारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सूफियों का मानना था कि संगीत और नृत्य मानव हृदय में दिव्य परमानंद पैदा करते हैं। सूफीवाद के धार्मिक आयोजन को साम के नाम से जाना जाता है।
कव्वाली :-
क्वाल एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ था ‘ कहना ‘। यह कव्वालों के खुलने या बंद होने के समय गाया जाता था।
बेशारिया :-
शारिया की अवहेलना करने के कारण उन्हें बेशारिया कहा जाता था।
बाशारिया :-
शारिया का पालन करने वाले लोग सूफियों से अलग करके देख जा रहा था।
उत्तरी भारत में नए भक्ति मार्ग
कबीर :-
- कबीर 14 वीं – 15 वीं शताब्दी के कवि – संत थे।
- कबीर के छंदों को तीन अलग – अलग परंपराओं में संकलित किया गया था।
- कबीर बीजक उत्तर प्रदेश में कबीरपंथ द्वारा संरक्षित है।
- कबीर ग्रंथावली राजस्थान में दादूपंथ से जुड़ी है।
- उनके कई छंदों को आदि ग्रंथ साहिब में शामिल किया गया था।
- कबीर ने परम वास्तविकता को अल्लाह, खुदा, हज़रत और पीर बताया। उन्होंने वैदिक परंपराओं से भी शब्दों का इस्तेमाल किया, जैसे अलख, निराकार, ब्राह्मण, आत्मान आदि।
- कबीर ने सभी प्रकार के दर्शन अर्थात वैदिक परंपराओं, योगिक परंपराओं और इस्लामी विचारों को स्वीकार किया।
- कबीर के विचारों ने संभवतः संवाद और बहस के माध्यम से क्रिस्टलाइज़ किया।
गुरु नानक :-
- गुरु नानक के संदेश को उनके भजन और उपदेशों में पिरोया गया है, जहां उन्होंने निर्गुण भक्ति के एक रूप की वकालत की।
- गुरु नानक के अनुसार, पूर्ण या ‘ रब ‘ का कोई लिंग या रूप नहीं था। उनके विचारों को पंजाबी में ‘ शबद ‘ नामक भजनों के माध्यम से व्यक्त किया गया।
- गुरु अर्जन ने आदि ग्रंथ साहिब में बाबा फरीद, रविदास और कबीर के भजनों के साथ गुरु नानक के भजनों को संकलित किया जा में, गुरु गोबिंद सिंह ने गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को शामिल किया और इस शास्त्र को गुरु ग्रंथ साहिब ‘ के नाम से जाना गया।
मीराबाई :-
- मीराबाई भक्ति परंपरा की एक प्रसिद्ध महिला – कवि थीं। उसने कई गीतों की रचना की जो भावनाओं की तीव्र अभिव्यक्ति की विशेषता थी।
- मीराबाई के गीत ने गुजरात और राजस्थान में गरीब और निम्न जाति के लोगों को प्रेरित किया।
- पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में शंकरदेव असम में वैष्णववाद के एक प्रमुख प्रस्तावक थे।
FAQs on “भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ”
1. भक्ति-सूफ़ी परंपराओं का मुख्य उद्देश्य क्या था?
भक्ति और सूफी परंपराओं का मुख्य उद्देश्य धर्म और समाज में समरसता स्थापित करना था। भक्ति आंदोलन ने धार्मिक भेदभाव को समाप्त कर भगवान की भक्ति पर बल दिया, जबकि सूफी परंपराओं ने आध्यात्मिक ज्ञान और मानवता को प्राथमिकता दी।
2. भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत कौन थे?
भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में संत तुलसीदास, संत कबीर, गुरु नानक, मीराबाई और सूरदास शामिल हैं। इन संतों ने जाति और धर्म के बंधनों को तोड़ने का प्रयास किया और समानता का संदेश दिया।
3. सूफी परंपराओं के प्रमुख विचार क्या थे?
सूफी संतों ने आध्यात्मिक प्रेम, सेवा, और आत्मा की शुद्धि पर बल दिया। उन्होंने “तौहीद” (एक ईश्वर की मान्यता) और “इंसानियत” (मानवता) को अपने विचारों का केंद्र बनाया।
4. भक्ति और सूफी परंपराओं के विकास का ऐतिहासिक संदर्भ क्या था?
भक्ति और सूफी परंपराएँ मध्यकालीन भारत में विकसित हुईं, जब सामाजिक और धार्मिक तनाव बढ़ रहे थे। ये परंपराएँ जाति व्यवस्था, धर्म के कठोर नियमों, और धार्मिक अलगाव के खिलाफ प्रतिक्रिया स्वरूप उभरीं।
5. भक्ति और सूफी परंपराओं में क्या समानताएँ हैं?
दोनों परंपराएँ एक सर्वोच्च ईश्वर की भक्ति पर बल देती हैं, धार्मिक कट्टरता के खिलाफ हैं, और समाज में समानता और भाईचारे का संदेश देती हैं।
6. भक्ति आंदोलन में ‘निर्गुण’ और ‘सगुण’ भक्ति क्या है?
- निर्गुण भक्ति: यह भक्ति ईश्वर को निराकार मानती है। संत कबीर और गुरु नानक इसके प्रमुख प्रचारक थे।
- सगुण भक्ति: यह भक्ति ईश्वर को साकार रूप में पूजती है। तुलसीदास और मीराबाई इसके उदाहरण हैं।
7. सूफी परंपरा के प्रमुख केंद्र कौन-कौन से थे?
सूफी परंपराओं के प्रमुख केंद्र दिल्ली, अजमेर (ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह), और गुलबर्गा (बुजुर्ग अल-गेसू दराज की दरगाह) जैसे स्थान थे।
8. भक्ति-सूफी परंपराओं का साहित्यिक योगदान क्या है?
भक्ति और सूफी संतों ने कविताओं, भजनों और सूफी गीतों के माध्यम से अपने विचार व्यक्त किए। इनका साहित्य हिंदी, फारसी, और अन्य भारतीय भाषाओं में है, जो सामाजिक और धार्मिक सुधार को प्रोत्साहित करता है।
9. भक्ति और सूफी आंदोलनों के प्रभाव क्या थे?
इन आंदोलनों ने धार्मिक सहिष्णुता, समानता, और जातिवाद के उन्मूलन के विचारों को बढ़ावा दिया। साथ ही, कला, संगीत, और साहित्य पर भी इनका गहरा प्रभाव पड़ा।
10. भक्ति-सूफी परंपराएँ आज के समाज में कैसे प्रासंगिक हैं?
आज भी, भक्ति और सूफी परंपराएँ धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक समानता के संदेश के माध्यम से समाज में शांति और एकता स्थापित करने में मदद करती हैं।
इन परंपराओं को समझने के लिए एनसीईआरटी की 12वीं कक्षा की इतिहास पुस्तक का अध्याय “भक्ति-सूफ़ी परंपराएँ” बेहद उपयोगी है.